गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

*बतकुंचन--*


आज बच्चों के आग्रह पर एक नामी पिज्जा वाले के दुकान में जाने का इत्तेफ़ाक हुआ।पिज्जा का ऑर्डर देने के बाद इसे बनाने की प्रक्रिया निहार रहा था। बनाने वाले के सिर टोपी से ढके हुए थे पर न हाथ मे दस्ताने या कोई एप्रन का इस्तेमाल। तिस पर उनके टी शर्ट याद कदा कच्चे माल को छू जाते।फिर उन्होंने पिज्जे के आटे को दोनों हाथों पर हेर-फेर कर उसकी आकृति बढ़ा दी।इस प्रक्रिया में उसके हथेलियों के अतिरिक्त उसके हाथ के अन्य हिस्से से स्पर्श कर रहे थे। अब दूर बैठा था तो यह भांप नहीं पाया कि उसके हाथों में पसीना निकल था कि नहीं और उस पसीने से यह फैलती पिज्जा स्पर्श पाकर कितनी स्वादिष्ट हो गई होगी।थोड़ी देर बाद बड़े ही हाइजीनिक ढंग से एक गत्ते के डिब्बे में पैक होकर पिज्जा हमारे सामने परोसा गया। मैं यह कयास लगाने में व्यस्त था कि साढ़े तीन सौ रुपया देकर इतने हाइजीनिक कंडीशन में बने और पसीने से सने पिज्जे का जायका कितना सुंदर हो गया होगा।यह गत्ता कितना स्वच्छ और किटाणुविहीन होगा। मैं कभी कैश काउंटर पर लगे सैटिस्फैक्शन गारंटेड के बोर्ड को देख रहा था कभी अपने सामने पड़े इस लजीज जायकेदार व्यंनजन को।