गुरुवार, 28 जनवरी 2016

सलवटें - डॉ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'

रवि आज  सुबह से ही उदास था.आँखों में खुमारी देखकर माँ ने टोका तो उसने ,'ठीक से नींद नहीं आई'कहकर बात काट दी । खिड़कीसे झाँकता सूरज भी उसे कुछ बीमार-बीमार सा लग रहा था.पूरा पीलिया का मरीज़ । आज कालिदास भी उसे झूठे लगने लगे थे-'उदेति सविता ताम्रसताम्रेवास्तमेति च.' लेकिन घूर-घूर कर देखने पर भी वह उसे तांबे-सा किसी कोने से नहीं लग रहा था । बल्कि उसे तो सूरज का लाल-लाल घेरा ऐसा लग रहा थाजैसे कि पीतल की थाली औंधी लिटा दी गई हो ।  इस साल वह बीमार क्या पड़ा कि  उसे सब मरीज़ ही दिखने लगे हैं । 
   
उसकी बेटी प्रकृति ने उठते ही 'दादी-दादी' चिल्लाना शुरू कर दिया । दादी जब तक दौड़कर आएँ उसने उसे झिड़क दिया । "पहले जाओ ब्रश करके आओ । " प्रकृति ने उसकी एक न सुनी और दौड़कर दादी के गले से झूल गई. रवि को बुरा तो बहुत लगा पर सुबह-सुबह मूड खराब  नहीं करना चाहता था। इसलिए माँ को धीरे से बरज  दिया । "इसे ज़्यादा मुँह मत लगाया करो । यह बहुत ज़िद्दी होती जा रही है । "जब  भी प्रकृति दादी के गले से झूलती है रवि को लगता है कि अब न तब उसे कोई न कोई बीमारी लगके रहेगी । उसकी बीबी सुधा तो सास का लगाया महावर तक नहीं लगाती। उसे लगता है कि ऐसा करने से सास की शुगर की बीमारी उसे लग जाएगी । रवि जब उसे डांटता तो वह मुँह फुला के बैठ जाती । मानती ही नहीं कि यह छूत की बीमारी नहीं है । अब तो रवि को भी माँ में छूत की बीमारियाँ ही बीमारियाँ भरी नज़र आ रही हैं । इसलिए वह नहीं चाहता कि प्रकृति माँ से ज़्यादा लिपटे-चिपटे और उसकी कोई बीमारी अपने ऊपर लाड ले । पता नहीं कौन-सा डर उसके दिमाग में बैठ गया है कि वह दादी-पोती के गठजोड़ को किसी  किसी तरह तोड़ने  की फ़िराक में है । 
   
कल  जब प्रकृति अपनी दादी के गले में बाहें डालके पीठ पर लद कर झूल रही थी । सुधा दौड़कर इसकी सूचना रवि को देने गई थी । इतना ही नहीं वह,यह सूचना देकर उलटे पाँव दौड़ी-दौड़ी आई और संकेतों से  उसे अपने पास बुलाने लगी । जब वह नहीं आई तो उसने डांटकर पास बुलाया .प्रकृति पर इस डांट-फटकार का भी कोई असर पड़ते न देख उसके दोनों गालों पर तडातड़ कई थप्पड़ जड़ दिए । रवि की माँ को लगा कि वे थप्पड़ प्रकृति को नहींउसे ही मारे जा रहे हैं । यह सब समझते हुए भी वह पोती  का मोह नहीं छोड़ पा रही थी.जब-तब प्रकृति अपनी गुलाब की पंखुड़ियों-सी उँगलियों को दादी के मुँह में भी दे देती है ।  दादी उन कोमल-कोमल उँगलियों को मुँह में लेकर गुडुम-गुडुम करती है और दोनों ठठा कर हँसती हैं तो राधा की छाती पर सांप लोट जाता है ।  अब तो राधा की तरह ही कभी-कभी रवि को भी लगने लगता है कि उसकी मूरख माँ  ऐसे नहीं  मानेगी । 
 
आज फिर सवेरे-सवेरे दौड़कर प्रकृति दादी के गले से झूल गई. उसने मुँह में हाथ भी नहीं डाला तो भी रवि ने उसे बहुत जोर से डांटा,"कितनी बार कहा है कि मुँह में हाथ मत डाला करो.मुँह में हाथ देना गंदी बात है । "उसने दादी का मुँह चूमते हुए कहा ," दादी के मुँह में हाथ नहीं डाला है डैडी। "मुँह चूमते देखकर तो जैसे रवि  की पूरी देह में आग लग गई । उसने झटके से पीठ से खींचते हुए दो-तीन झापड़ उसके रसीद कर दिए । एक-एक उँगली उसके गाल पर छप गई । वह बहुत देर तक सिसक-सिसक कर रोती रही ।रवि की माँ ने आज पूरा दिन कुछ नहीं खाया । प्रकृति को धूप में लिटाकर उसकी तेल मालिश की। इस बीच सुधा निगरानी में रही कि बुढ़िया कहीं उसे चाटे-चूटे नहीं ।  सुधा पीछे और कभी -कभी सामने भी उसे बुढ़िया ही संबोधित करती है । कहीं जाने के लिए सुधा  जैसे ही उठी रवि की माँ ने अपनी बगल में लेटी प्रकृति के चोरी-चोरी  गाल सहलाए और धीरे से चूम लिया ।  जब उसने करवट ली और कुनमुनाई तो रवि की माँ डर गई कि प्रकृति कहीं जाग न जाए तो  बहू उसे डांटे लेकिन वह कुनमुनाई और करवट बदल के सो गई । 
   
दोपहर दो बजे चार साल की बच्ची को बोर्डिंग स्कूल में डालने का फ़ैसला रवि ने छत पर आकर माँ को सुनाया तो उसके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक गई.उस फूल-सी कोमल बच्ची पर इतना बड़ा अत्याचार वह भी उससे अलग करने के वास्ते ।  पहले उसने नींद में  मुँह चलाती पोती को देखा फिर छत से नीचे की ओर झांका. जैसे वह अंदाज़ा लगा रही हो कि  कूदेगी तो बच तो नहीं जाएगी,नरक भोगने के लिए । अपने और माँ के बीच पसरे सन्नाटे को परे हटाते हुए रवि ने पूछा ,"माँ,कैसा रहेगा?" उसने कहा,"आप लोग पढ़े-लिखे हैं ,जो फैसला करेंगे ठीक ही करेंगे । " इतना संक्षिप्त सा उत्तर देकर नम आँखें छिपाती हुई नीचे उतर आई । उसे लग रहा था कि अपना तहज़ीबी और नजाकत-नफ़ासत का शहर लखनऊ कौन काना है जो वह उसे देहरादून और मसूरी में मासूम के हाड़ कँपवाने के लिए डालने जा रहा है 
   प्रकृति की दादी रात भर करवटें बदलती रही । वह अपने बेटे और पोती दोनों के दर्द के निवारण के उपाय खोजती रही  ब्रह्म मुहूर्त में उसके ज्ञान चक्षु खुल गए । उसने विचार बनाया कि वह गाँव चली जाए तो रवि और प्रकृति दोनों की पीड़ा दूर हो जाएगी । लेकिन वह भांपने नहीं देगी कि वह किस वज़ह से जाना चाह रही है.सुबह चार बजे से ही वह तरह-तरह के पकवान बनाने लगी । रवि नीचे आया तो  रसोई से आती महक सूँघ कर वहीं पहुँच गया और पूछा,"यह सब किसके लिए बना रही हो ,माँ ?" माँ ने सहज भाव से ,"अपनी प्रकृति के लिए " कहकर मुँह घुमा लिया.वह बाहर से सिगरेट फूँकता हुआ अंदर आया । आज माँ ने सिगरेट के लिए नहीं टोका । लेकिन ,"ज़रा सुनो बेटा "कह कर रवि का ध्यान अपनी ओर खींचा तो  उसे लगा कि माँ सिगरेट के लिए टोकेगी । आज पहली बार रवि का अनुमान गलत हुआ कि माँ ने सिगरेट के लिए न टोककर गाँव जाने का अनुरोध किया है  उसने आज पहली बार रवि के हाथ जोड़े हैं । "बेटा मुझे हरदोई वाली बस मैं बैठा देना । मैं संडीला उतरकर गाँव चली जाऊँगी और तुम दोनों प्रकृति के साथ चले जाना । मेरी वज़ह से बहू को यहाँ रुकना पड़ेगा  वह नन्हीं जान माँ के लिए छटपटाएगी तो मुझे बहुत पाप पड़ेगा । "रवि को लगा कि वह कह दे कि माँ तुमने तो मेरी मुँह माँगी मुराद पूरी कर दी पर प्रकट में दुलार जताते हुए कहा ,"प्रकृति की असली जान तो उसकी दादी माँ है,माँ नहीं । "जैसे बनावटी भाव से रवि ने कहा था वैसे  ही उसने भी कहा ,"पर माँ,माँ होती है बेटा !मैंने भी तुझे जना है । "इतना कहते-कहते  फूट पड़ी पर तुरत सँभलते हुए कहा ,"मेरे जाने के हफ़्ते दो हफ़्ते बाद उसे होस्टल में डालने ले जाना । "इसका कारण न रवि ने पूछा और न माँ ने बताया । बहुत सी बातों का अनकहापन ही सुंदर होता है । कहने पर वे भोंड़ी हो जाती हैं 
  रवि बनावटीपन के साथ राधा को ज़ोर-जोर से चिल्लाकर जगाने लगा ,"इसे नहीं पता है कि आज प्रकृति को होस्टल छोड़ने जाना है.भैंस-सी सो रही है.नीचे उतरकर देखो माँ ने अपनी पोती के लिए क्या-क्या पकवान बना डाले हैं और एक तुम हो कि घोड़े बेंचकर सो रही हो " माँ सब जानती है कि आज की यह शब्दावली उसके जाने की खुशी में फूटी मुक्तावली है  न कि माँ की मुरव्वत में बोली गई उसकी खुशी की शब्दावली है । उसके मन में आ रहा है कि कह दे कि बेटा उसकी फूल-सी कोमल पोती को  इसी घर में रहने दे । वीराने में पड़कर कुम्हला जाएगी.आज से और अभी से वह पोती को हाथ नहीं लगाएगी । उसे भर नज़र देखकर ही पेट भर लेगी । लेकिन वह इस बात को कहे तो कहे कैसे? रवि ने खुलकर तो कभी कहा ही नहीं कि वह प्रकृति को न छुए 
   वह हरदोई की पहली बस पकड़ने के लिए आई आई एम मोड़ पर खडी है  । कुहरा है कि हर ट्रक-बस को अंधा बनाए दे रहा है । अभी साढ़े छः ही बजे हैं । साढ़े सात -आठ बजे तक सूर्यदेव दर्शन भी देंगे तो शर्माए-शर्माए अंतरी कोलिया झाँकते मिलेंगे । उसे लग रहा है कि उसने कभी अपने सास-ससुर को नहीं टोका कि वे रवि को न छुएँ  खैर  टोका तो इन्होंने भी नहीं । लेकिन इन्होंने टोकने से ज़्यादा उसका अपमान प्रकृति को मारपीट कर किया  उसका ध्यान बार-बार इसी बात पर जा रहा है कि देखो एक बार भी रवि के मुँह से नहीं निकला कि,' माँ प्रकृति से मिल लो  । उसके हाथ चूम लो.नहीं तो याद करकर के रोएगी 'जब वह मायके जाती थी तो उसके सास और ससुर दोनों रवि की हथेलियों पर थूक देते थे कि इसे उनकी याद न आए । इधर मैं अभागी  हथेलियों पर थूकना क्या चूमने तक से छूत लग जाती है यह तो अच्छा  हुआ कि राधा सो रही थी और रवि सिगरेट लेने बाहर गया था तो वह चुपके से वह प्रकृति को चूम आई थी 
   कोई  बस सामने से आते दिखी तो रवि बेतहासा दौड़ा । सामने आती बाइक से टकराते-टकराते बचा.वह जमीन पर गिर गया था .हलकी -सी खरोंचें ही आई थीं पर इसका सीना तो बहुत तेज़-तेज़ धौंकनी -सा धड़क रहा था.उसे लग रहा था  कि जैसे उसका हार्ट फेल हो जाएगा  लोगों ने रवि को उठाकर चलाया तब जाकर उसे संतोष आया.बस के यात्री भी उतरकर देखने लगे थे  कंडक्टर उन्हें धकेल-धकेल कर अंदर कर रहा था ।  इसी बस से तो उसे भी जाना है पर उसे कुछ पता नहीं । "माँ जल्दी से बस में चढ़ो " कहकर रवि  माँ को चढ़ाने लगा । उसकी कमर में जोर से चिलकन हुई तो वह डिवाइडर  पर बैठ गया ।  लोगों ने माँ को ज़बरन बस में चढ़ा दिया लोगों के लाख मना करने के बावज़ूद वह बस से सर निकालकर देखती रही । वह देख रही थी कि उसका बेटा उठकर अपने पैरों से चलकर  किनारे आ गया है. उसने यह भी देखा है कि उसने मोटरसाइकिल स्टार्ट कर घर की ओर मोड़ ली है  । उसका पैर भी  नहीं लड़खड़ा रहा है फिर भी उसका दिल कर रहा है कि वह उतर ले और आज रात रह कर कल गाँव चली जाए । वह खड़ी होकर गेट पर आ भी जाती है । लेकिन तब तक कंडक्टर ने डाँट कर बिठा दिया,"मरना है का अम्मा।"
  अम्मा क्या कहे कि वह बिना मारे ही मरी हुई है।  कंडक्टर के यह कहने पर "चलो निकालो दस रुपए."उसने  धोती के खूँट में बांधी पचास की नोट उसे थमा दी और धम्म से बगल वाली सीट पर ढेर हो गई। उसे लगा कि  पीछे ही उसका सबकुछ छूट गया है । वह बेकार ही गाँव जा रही है। भीतर-भीतर कुछ टूट-सा रहा है.वह खुले खूँट को लगातार निहारे जा रही है । वह उस खुले खूँट की सलवटें बराबर कर रही है,लेकिन उनकी ऐंठन कम नहीं  हो रही है। उसकी सलवटें सुधारते हुए उसे न जाने क्यों लगता है कि अभी-अभी बस अभी-अभी बरजोरी करते हुए  प्रकृति ने ही वह खूँट खोला है और नोट निकालकर चाकलेट लेने दौड़ी चली जा रही है। 


सोमवार, 11 जनवरी 2016

पहले क्या खोया जाए - डॉ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'

पशमीना की शाल-से 
पिता जी भी थे तो बेशकीमती 
पर खो दिए मुफ्त में
डहरिया पर पड़ी 
रुई हीन रज़ाई-सी 
माँ है 
अभी भी खोने के लिए
कितना भी कुछ कर लो 
खोती ही नहीं 
कुछ समझती भी नहीं 
ऊपर से गाती रहती है 
'
खोने से ही पता चलती है कीमत 
बेटे!पिता जी तो समझदार थे 
समय पर 
खोकर बता गए कीमत
खो जाऊँगी मैं भी 
किसी समय,
एक न एक दिन
तब पता चलेगी कीमत मेरी भी ' 
पर पता नहीं 
यह क्यों नहीं चाहती
बतानी कीमत अपनी भी
समय पर 
देर क्यों कर रही है 
निरर्थक ही 
हम भरसक कोशिश में रहते हैं 
खो जाए किसी मंदिर की भीड़ में 
छोड़ भी देते हैं 
यहाँ-वहाँ मेले-ठेले में
कभी तेज़-तेज़ चलकर 
कभी-कभी बेज़रूरत ठिठक कर भी 
और 
जानना चाहते हैं कीमत 
माँ के खोने की भी 
सोचता हूँ 
होने की कीमत जान न पाया जिसकी 
खोने की ही जान-समझ लूँ 
कुछ तो कर लूँ समय पर 
कीमत समझने का 
यही कामयाब तरीका चल रहा है 
इन दिनों 
इसी तरीके से तो एक-एक कर 
खोते रहे हैं रिश्ते दर रिश्ते
अब तो 
खोने के लिए 
'
एंजेल' या 'मार्क्स' भी तो नहीं बचे हैं
इस गरीब के पास 
या तो एक अदद माँ बची है 
या फिर एक अदद फटा कंबल 
कीमत दोनों की जानना ज़रूरी है 
अब इतने छोटे भी नहीं रहे जो,
माँ के सीने से चिपक कर 
बिताई जा सकें सर्द रातें 
फिर कोई तो बताए 
आखिर पहले क्या खोया जाए ?