सोमवार, 11 जनवरी 2016

पहले क्या खोया जाए - डॉ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'

पशमीना की शाल-से 
पिता जी भी थे तो बेशकीमती 
पर खो दिए मुफ्त में
डहरिया पर पड़ी 
रुई हीन रज़ाई-सी 
माँ है 
अभी भी खोने के लिए
कितना भी कुछ कर लो 
खोती ही नहीं 
कुछ समझती भी नहीं 
ऊपर से गाती रहती है 
'
खोने से ही पता चलती है कीमत 
बेटे!पिता जी तो समझदार थे 
समय पर 
खोकर बता गए कीमत
खो जाऊँगी मैं भी 
किसी समय,
एक न एक दिन
तब पता चलेगी कीमत मेरी भी ' 
पर पता नहीं 
यह क्यों नहीं चाहती
बतानी कीमत अपनी भी
समय पर 
देर क्यों कर रही है 
निरर्थक ही 
हम भरसक कोशिश में रहते हैं 
खो जाए किसी मंदिर की भीड़ में 
छोड़ भी देते हैं 
यहाँ-वहाँ मेले-ठेले में
कभी तेज़-तेज़ चलकर 
कभी-कभी बेज़रूरत ठिठक कर भी 
और 
जानना चाहते हैं कीमत 
माँ के खोने की भी 
सोचता हूँ 
होने की कीमत जान न पाया जिसकी 
खोने की ही जान-समझ लूँ 
कुछ तो कर लूँ समय पर 
कीमत समझने का 
यही कामयाब तरीका चल रहा है 
इन दिनों 
इसी तरीके से तो एक-एक कर 
खोते रहे हैं रिश्ते दर रिश्ते
अब तो 
खोने के लिए 
'
एंजेल' या 'मार्क्स' भी तो नहीं बचे हैं
इस गरीब के पास 
या तो एक अदद माँ बची है 
या फिर एक अदद फटा कंबल 
कीमत दोनों की जानना ज़रूरी है 
अब इतने छोटे भी नहीं रहे जो,
माँ के सीने से चिपक कर 
बिताई जा सकें सर्द रातें 
फिर कोई तो बताए 
आखिर पहले क्या खोया जाए ?

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