रविवार, 20 सितंबर 2015

सरकारी आंकड़ों में सिमटती हिन्दी

आए दिन हिन्दी के प्रचार प्रसार के संबंध में केंद्र सरकार के सरकारी कार्यालयों में कई प्रकार के प्रयास किए जाते हैं । हिन्दी का प्रयोग बढ़े इसके लिए भी कई प्रकार के परितोषिकों का भी प्राविधान किया गया है फिर भी देखा जाए तो सरकारी आंकड़ों में जिस तरह से हिन्दी के प्रयोग में होने वाली वृद्धि को दर्शाया जाता है, यदि धरातल पर देखें तो ये आंकड़ें सर्वथा असत्य प्रामाणित हो जाएँगे । हिन्दी का प्रयोग कम होने एवं इतने प्रोत्साहनों के बावजूद हिन्दी का उत्तरोत्तर विकास ना होने के पीछे क्या कार्य हो सकता है इस संबंध में कुछ छोटे कार्यालयों में मैंने स्थिति का आंकलन का प्रयास किया । इन आंकलनों में से कुछ विंदु निम्नलिखित है :-

 1. सरल शब्दों के प्रयोग का अभाव :- भारत के सरकारी कार्यालयों में जब हिंदीकरण का शुरुवात किया गया उस समय कई विद्वानों ने अपनी विद्वता का परिचय देते हुए कई सारे क्लिष्ट एवं कठिन शब्दों का आविस्कार किया । ये क्लिष्ट शब्द उन लोगों को तो आसानी से समझ आ जान स्वाभाविक है जो हिन्दी भाषी हैं या हिन्दी माध्यम से शिक्षा अर्हित किए हुए हों परंतु हिंदीतर भाषाई समुदाय के लोग चाहे वो गुजरात–महाराष्ट्र के हों या केरल–बंगाल के । अपनी मातृभाषा से इतर कोई अन्य भाषा सीखकर प्रयोग में लाना हो तो अधिकांश लोगों को असहजता का अनुभव होगा । कुछ प्रयास तो कर सकते हैं परंतु ऐसे क्लिष्ट शब्द आसान प्रयोग में बाधक हो जाते हैं । मैंने कई सहकर्मियों से इस संबंध में बात किया । सबका यही जवाब मिला कि हिन्दी के कठिन शब्दों की हिन्दी ठीक से समझ नही आती अतः बार बार के पूछने के झंझट से बचने के लिए हमें अँग्रेजी का प्रयोग ही आसान लगता है । अब कार्मिकों की इस प्रकार की असुविधा के निवारण के लिए उचित तो यही है कि हिन्दी भाषा में कार्यालयीन प्रयोग के लिए आसान शब्दों के प्रयोग पर बल दिया जाए । एक सभा के दौरान गुजरती भाषा के एक प्रमुख समाचार पत्र के महाप्रबंधक ने मुझसे यह आग्रह कर डाला कि सरल हिन्दी का यदि प्रयोग किया जाए तो इसे अपनाने एवं प्रयोग करने में किसी को असुविधा नही होगी । 

 2. अँग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद से भाषा के वास्तविक स्वरूप का खो जाना :- अक्सर देखा गया है कि अँग्रेजी भाषा में पत्राचार करने के हम इतने आदि हो जाते है कि अँग्रेजी के स्वरूप में ही हिन्दी लिखने का प्रयास करते हैं । कार्यालयीन अँग्रेजी में अधिकांशतः लंबे एवं संयुक्त वाक्यों का प्रयोग किया जाता है । अब यदि इन लंबे एवं संयुक्त शब्दों का अनुवाद करने का प्रयास किया जाए तो कही जाने वाली बात कुछ अन्य रूप में ही प्रकट होती है । अधिकांशतः अनुवादक एवं हिन्दी अधिकारी भी अपनी विद्वता सिद्ध करने के लिए अँग्रेजी के रूप में ही अनुवाद भी प्रस्तुत कर डालते हैं । इस बात का कतई ध्यान नहीं रखा जाता है कि इस पत्र लेखन का उद्देश्य क्या है और इसे किस वर्ग के लोगों को भेजा जाना है । हालांकि अनुदेशों में इस बात का जिक्र अवश्य किया गया है कि अनुवाद करते समय इस बात का प्रयास अवश्य किया जाए कि छोटे छोटे वाक्य लिखे जाए ताकि वाक्यों का अर्थ सही रूप में प्रकट हो सके । परंतु इन अनुदेशों को कई बार अनदेखा कर दिया जाता है । 

 3. कॉपी पेस्ट की परंपरा :- अधिकांश सरकारी कार्यालयों में फाइलों में पीछे के पत्रों को देखकर कुछ शब्दों एवं वाक्यों में मामूली हेरफेर करके नया पत्र बनाया जाता है । इस प्रकार ना तो अधिक श्रम लगता है ना ही समय । कोई भी नया कार्मिक जब कार्यग्रहण करता है और उसे कोई कार्य करना पड़ता है तो अधिक श्रम ना कर वह कॉपी पेस्ट से अपना काम प्रारम्भ करता है । एक बार जिसकी आदत पद जाये तो कहाँ से छूटने वाले है । ऐसे में हम लौटकर हिन्दी में काम करने में क्रमशः असक्षम हो जाते हैं । 

 4. हीनभावना की सोच :- यह देखा गया है कि कुछ अधिकारी एवं कार्मिक इस हीं भावना के शिकार होते हैं कि यदि वो हिन्दी में अपना सरकारी काम करते हैं तो उन्हे अल्पज्ञानी माना जाएगा । अपनी इस हीं भावना को छुपाने के लिए ऐसे अधिकारी एवं कर्मचारी चाहकर भी हिन्दी में काम करने का प्रयास नहीं करते हैं । कई बार तो यह देखा गया है कि हिन्दी भाषाई समुदाय के अधिकारी अपनी विद्वता साबित करने के लिए कार्मिकों द्वारा हिन्दी में प्रस्तुत पत्रों को अमान्य कर देते हैं और उन्हे अँग्रेजी में ही पत्र प्रस्तुत करने के लिए अभिप्रेरित करते हैं ।

 5. पत्रलेखन में अँग्रेजी की शैली का अनुपालन :- यूं तो अंग्रेज़ एवं अँग्रेजी भाषा के प्रकांड विद्वान के अलावा शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो सीधे ही अँग्रेजी भाषा में सोचकर अपनी बातों को लिखकर प्रस्तुत करे । अधिकांशतः लोग पहले अपने मन में अपनी मातृभाषा में सोचते हैं फिर उसका अँग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत कर पत्र या नोट को मूर्त रूप देते हैं । इस सोच में यदि एक सामान्य सा परिवर्तन कर लिया जाए, मातृभाषा में सोचें एवं उसे हिन्दी में प्रस्तुत करें तो यह सफर बिलकुल ही आसान हो जाये । हिन्दी का प्रयोग प्रारम्भ हो जाये । इस प्रकार का प्रयोग मैंने एक कार्यालय में करवाया । इस प्रयोग के बाद अधिकांश कार्मिक इस विधि के कायल हो गए और वो आज भी हिन्दी में ही सरकारी काम किए जा रहे हैं । 

 6. सरकारी कार्यालयों में पत्राचार में “Hindi version will follow” का प्रचलन :- राजभाषा अधिनियम की धारा 3(3) में 14 प्रकार के कागजात का वर्णन है जिन्हे द्विभाषी रूप में ही जारी किया जाना अपेक्षित है । इस नियम का भी एक आसान सा तोड़ सरकारी बाबुओं ने निकाल लिया है । इस मद के अधिकांश पत्र अँग्रेजी में ही जारी किए जाते हैं परंतु अपनी ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाने के लिए हर पत्र के नीचे “Hindi version will follow” लिखकर अपनी ज़िम्मेदारी का इतिश्री मान लिया जाता है । सरकारी बाबू इस मुगालते में रहते है कि चलो हमने इस वाक्य को लिखकर हिन्दी में जारी किए जाने वाले पत्रों का इतिश्री कर दिया है । मेरे पास सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत हिन्दी में लिखे कई पत्रों का जवाब विभिन्न सरकारी कार्यालयों से अँग्रेजी में ही प्राप्त हुआ है जिसके अंत में सुनहरे अक्षरों वाला “Hindi version will follow” वाक्य लिखा मिला किन्तु अबतक किसी भी कार्यालय ने उन पत्रों का हिन्दी रूप नहीं भेजा । यह हिन्दी को छलने की विडंवना नहीं तो और क्या है । 

 7. मिथ्या आंकड़ों की भरमार : हिन्दी में किए जाने वाले पत्राचार एवं कार्य पर नजर रखने के लिए हर विभाग अपने अधीनस्थ कार्यालयों से माह के दौरान किए गए कार्यों का विवरण मँगवाता है । इस विवरण को समेकित कर भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग को भेजा जाता है । चूंकि अधिकांश कार्यालयों में “Hindi version will follow” जैसे पत्रों की भरमार होती है, लिहाजा अधिकांशतः झूठे रिपोर्ट ही बनाए जाते हैं।अधीनस्थ कार्यालय शीर्ष कार्यालयों से सुनना ना पड़े इसके लिए यदि 20 प्रतिशत कार्य किया जाए तो उसे 80 प्रतिशत दिखाने का प्रयास करते हैं । 

 8. कार्यालय के शीर्ष अधिकारियों द्वारा हिन्दी के प्रयोग से संबन्धित संवैधानिक प्राविधानों की अवहेलना :- किसी भी कार्यालय के प्रशासनिक प्रमुख का यह उत्तरदाईतव है कि उसके अधीनस्थ कार्मिक सरकारी काम निर्धारित प्रतिशतता में करें । चूंकि कार्मिक एवं अधिकारी आसान प्रक्रिया एवं अपनी हीन भावना को पोषण देते हुए अँग्रेजी में पत्र प्रस्तुत करते है । अब यह प्रशासनिक प्रधान यदि ऐसे अधिकारी एवं कार्मिक को एक दो बार इस बात के लिए टोक दें तो भविष्य में ऐसे लोग हिन्दी में पत्राचार का प्रयास प्रारम्भ कर सकते हैं , पर ऐसे मामले में प्रशासनिक प्रधान की भी उदासीनता झलकती है । कुछ कार्यालयों में तो लोग यह सोचते हैं कि यह एकमेव हिन्दी विभाग के कार्मिकों का ही दायित्व है हिन्दी में काम करना बाकी किसी का नहीं । अब हिन्दी कार्मिक बिना दाँत का जानवर जिसकी कोई सुनता नही है वह अकेला क्या कर सकता है । जबतक प्रशासनिक प्रधान की रजामंदी ना हो एक व्यक्ति के प्रयास सरकारी कार्यालयों में खास मायने नहीं रखते । उपरोक्त बिन्दुओं के अलावा कई सारे कहे-अनकहे बिन्दु भी हो सकते हैं । यदि थोड़ा सा प्रयास हर व्यक्ति करे तो हिन्दी का प्रयोग मात्र आंकड़ों तक सिमटकर ही नहीं रहेगा अपितु सही रूप में हिन्दी का प्रयोग बढ़ सकता है ।

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