बुधवार, 2 सितंबर 2015

गौ सेवा को समर्पित एक वायु सैनिक

       हमारे एक पुराने मित्र हैं श्री सुनील कुमार श्रीवास्तव ,हम दोनों माउंट आबू में कुछ दिन एक साथ थे । बड़े ही सरल स्वभाव एवं मिलनसार प्रवृत्ति के व्यक्ति । अच्छे इतने कि कई बार अपने घर में भरा हुआ सिलिंडर चाहे एक भी ना हो पर अगर कोई मित्र उनसे सिलिंडर मांग ले तो अपने घर में लगे हुए सिलिंडर को निकाल कर दे देंगे, कभी यह नही सोचते कि घर का चूल्हा कैसे जलेगा । उनका एक बेटा आर्मी में कैप्टन है , बेटी बैंक में मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं । इतना सब होते हुए भी अहंकार उनके अंदर लेशमात्र भी नहीं था ।  
       काफी अरसे बाद इत्तेफाकन मेरा मुंबई जाना हुआ , हमारी फ्लाइट किसी कारणवश लगभग 10 घंटे एलईटी थी । मैंने उनकी पुत्री , जो कि मुंबई में ही रहती है , उसे फोन किया । बेटी ने बताया कि पापा भी घर आए हुए हैं । एक अरसे बाद उनसे मिलने की बात सोचकर मैं उनसे मिलने चल पड़ा । वर्तमान समय में सुदूर आसाम के किसी स्थान में तैनात हैं । बातों-बातों में उनके वर्तमान कार्यभार के बारे में मैंने पूछा । उन्होने हँसते हुए बताया कि आजकल गौ सेवा में लगा हुआ हूँ । सुनकर मैं बड़ा हैरान हुआ कि उनके जैसे सुधड़ व्यक्ति गौ सेवा में लगा हुआ है । कौतूहल का विषय भी था । मैंने विस्तार से उनके इस नए कार्य में बारे में जानना चाहा ।
 उन्होने बताया कि असम में एक डेरी फार्म है , वायु सेना का जिसके देखरेख की ज़िम्मेदारी उनके विभाग को दी गई है । पिछले काफी महीनों से फार्म घाटे में चल रही है । बस ऐसे ही चर्चा चली कि फार्म को अब बंद कर देना चाहिए क्योंकि उससे लाभ की बजाय नुकसान ही अधिक होता है । सुनिलजी भी उस वार्ता में शामिल थे । उन्होने आगे बढ़कर कहा कि उस फार्म की देखरेख के ज़िम्मेदारी उन्हे सौंप दी जाये । लोगों को उनके इस कथन पर बड़ा आश्चर्य हुआ । कहाँ लोग ऐसे कार्य को हाथ में लेने से कतराते हैं, और कहाँ ये हैं कि “आ बैल मुझे मार” कह रहे हैं । खैर उनकी बात को मानकर उन्हे डेयरी का मैनेजर बना दिया गया । इसके पहले दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होने वायुसेना के स्कूल में भी प्रबन्धक का पद संभाला था और उसे बखूबी निभाया भी था । मैनेजर बनते ही उन्होने फार्म का दौरा किया । कई गायें थीं, सबको एक नाम दिया गया था । उनके नाम से उनका सम्बोधन किया जाता था । पहुँचते ही उन्होने समस्त गायों को पुचकारा , उनसे बातें की और फिर लग गए अपना काम करने में ।

       अगले दिन सुबह के पाँच बजे पहुँच गए फार्म और फिर पहला काम शुरू किया फार्म की सफाई का । पानी का पाइप अपने हाथों में लिया , वहाँ काम करने वाले कर्मचारी को भी साथ लिया और पूरे फार्म को साफ किया । सफाई के बाद , गायों को खिलना, फिर दूध निकालने की प्रक्रिया । सबकुछ पूरा करने के बाद फिर निकल पड़े अन्य व्यवस्थाओं को पूरा करने । दोपहर फिर पहुँच गए फार्म , गायों को देखने । वहाँ काम करने वाले कामगार हैरान हो गए उन्हे देखकर । कहने लगे, साहब इस समय कहाँ घूम रहे हैं । इस समय तो अधिकतर लोग आराम करते हैं । उन्होने बताया कि मैं गौवों को नहलाने के लिए आया हूँ । गर्मी के दिन हैं , उन्हे नहलाना जरूरी है । और फिर पाइप लेकर सबको नहलाने का काम शुरू कर दिये । रगड़-रगड़ कर समस्त गायों को नहलाया, उनके रहने के स्थान की सफाई कारवाई और फिर अपने कमरे में वापस चल दिये । शाम को फिर दूध दूहने के समय पहुँच गए। उनके मन में एक बात और आई । उन्होने उनको कुछ और खिलाने की बात सोची । अलग से कुछ करने के लिए बजट की मंजूरी करवाना एक टेढ़ी खीर होते है, वह भी तब जब आपकी परियोजना घाटे का सौदा साबित हो रही हो । इसके लिए उन्होने के हल निकाला । उन्हे याद आया कि मेस में पका हुआ काफी भोजन बच जाता है जिसे अगले दिन सुबह फेंक दिया जाता है, क्यों ना उसी भोजन सामाग्री का सदुपयोग किया जाए। वो मेस गए और वहाँ के इंचार्ज से बात की । इंचार्ज इस बात के लिए तैयार हो गए कि सुबह के समय बचा हुआ भोजन वो ले जा सकते हैं । अब समस्या थी मेस से फार्म तक उस सामाग्री को ले जाना । कामगार की संख्या इतनी कम थी कि उनसे यह काम करवाना संभव नहीं था अतः खुद ही ले जाने की सोचे । नए नए आए थे आवागमन का कोई साधन नहीं था उनके पास । माउंट आबू प्रवास के दौरान एक मोटर साइकिल दुर्घटना में उनके पैर के घुटने में चोट आ गई थी जिसके कारण ठीक से चलने में उन्हे असुविधा होती थी । ऐसी परिस्थित में उन्होने इस काम के लिए एक साइकिल खरीदा । यह जानते हुए भी कि साइकिल चलाना उनके घुटने के लिए घटक हो सकता है, उन्होने यह रिस्क ले ही लिया ।

       सुबह तड़के पाँच बजे साइकिल चलते हुए मेस पहुंचे , वहाँ से बचे हुए भोजन को इकठ्ठा करवाया और उसे लेकर फार्म पहुँच गए । फार्म पहुँच कर एक एक गाय को अपने हाथों से रोटी खिलाया, उन्हे  पुचकारा और फिर दिनचर्या में लग गए । धीरे धीरे उनकी प्रतिदिन की यही दिनचर्या हो गई । चार से पाँच किलोमीटर साइकिल चलना, गायों के लिए भोजन ले जाना , उन्हे स्नान कराना , साफ सफाई करवाना । पहले तो कामगार उनके इस नियमितता से दुखी भी हुए पर बाद में उनके लगन को देख कर उनलोगों ने भी उनका साथ देना शुरू कर दिया । दो महीने का अंदर दुग्ध उत्पादन आशा से अधिक बढ़ गया । देखते देखते जो फार्म घाटे में चल रहा था अब उसे लाभ होने लगा । गायों को भी इनसे इतना लगाव हो गया कि उन्हे देखते ही उनकी बाँछे खिल जाती थीं । मानव-पशु की यह मित्रता प्रगाढ़ होती चली गई । उनका लगन कहें या सेवा का प्रताप लगातार साइकिल की सवारी से उनके घुटने की तकलीफ भी खत्म हो गई और अब वो सामान्य हो गए थे ।
      
       मैंने उनके बच्चों से बात किया , पूछा कि पापा इस तरह गौशाला में काम करते हैं , आपलोगों को झेंप नाही आती है । उन बच्चों ने बड़े गर्व के साथ कहा कि अंकल हमारे पिताजी जवान और किसान दोनों के मिश्रित रूप में हैं , यह तो हमारे लिए गर्व की बात है कि वो आज भी अपनी जड़ों से जुड़ाव रखते हैं । मुझे लाल बहादुर शास्त्री जी का जय जवान- जय किसान का नारा सत्य होता हुआ प्रतीत हुआ । धन्य हैं ऐसे सपूत और उनकी सन्तानें ।     


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