सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

एक दिन फुटपाथ के साथ

 रोज के तरह सुबह-सुबह टहलने निकला था | अपनी मौज में गुनगुनाता चला जा रहा था , लगा जैसे किसी ने आवाज लगाया हो | सुनने के लिए इधर-उधर देखा, कहीं कोई दिखाई नहीं दे रहा था | मन का वहम सोच कर आगे बढ़ने लगा कि फिर वही आवाज आयी | पुकारने वाले ने धीमे से कहा, ”जनाब ज़रा नीचे तो झांकिए, मैं आपका चिर परिचित  'फुटपाथ' आपको आवाज दे रहा हूँ|” अब चौंकने की बारी थी , फुटपाथ मुझसे बात करने को उद्धत | उसने आगे कहा, “आज तक आपने बहुतों के बारे में लिखा- पढ़ा- सुना  होगा | कभी मेरे बार में भी कुछ लिख दीजिये|” थोड़े देर के लिए मैं सोच में पड़ गया कि क्या लिखूं , फिर निश्चय किया कि पूरी कहानी सुन लिया जाए फिर लिखने की शुरुआत होगी | वो बताता गया , मैं लिखता गया |
      सुबह की पहली किरण आकाश से फूटकर अभी नीचे आ भी नहीं पाती कि अपनी सेहत का ख्याल रखने वाले कुछ मतवाले , कुछ भटकते लोग विभिन्न वेशभूषा में मचलते- मटकते चले आते हैं , मॉर्निंग वाक के नाम से | इनमें से कुछ तो सही रूप में  'वाक' शब्द को चरितार्थ करते हुए दीखते हैं | पिछले दिन की घटनाएं, मित्रों एवं पड़ोसियों के छिद्रान्वेषण , घर से लेकर राजनीति तक का हर हाल आपस में बयां करते हुए चल देते हैं |इनमें कुछ ऐसे उद्दमी भी होते हैं जो बिना तम्बाकू सेवन के नहीं रह सकते ,शायद अपने घर से नित्य क्रिया करने न निकलते हों लिहाजा एक कोना देख कर उत्सर्जन कर अपने आप को हल्का कर लेते हैं | मैं वेचारा क्या कर सकता हूँ , मेरी चीख भी तो उन्हें सुनायी नहीं देती है | धीरे-धीरे सेहताकांक्षी इन वीरों का काफिला चला जाता है | आकाश भी लालिमा छोड़ अब अगले रंग में ढलने लगता है | यह समय शायद दिन भर के अच्छे समयों से एक होता है , जब नगर निगम के कर्मी प्रेम से अपने अस्त्रों द्वारा सेहताकांक्षी वीरों द्वारा फैलाये हुए कचरे के साथ दिन भर के गन्दगी को साफ़ करके निकल जाते हैं | इसके साथ ही   धीरे - धीरे मजमा लगना शुरू हो जाता है | आने जाने वालों का सफर शुरू हो जाता है , इसके साथ ही उनके विभिन्न आवश्यकताओं की वास्तु बेचने वाले सौदागर विभिन्न      रूप –रंगों में सज कर आ जाते हैं और फिर मंडी सा माहौल लग जाता हैं | शुरुवात में तो सब शांत सा चलता रहता है ,पर अचानक हलचल और भगदड़ मच जाती है | पलट कर देखा तो पता लगा कि ये नगर निगम एवं पुलिस का एक संयुक्त अभियान है जो इस प्रकार के अनाधिकृत व्यापारियों के खिलाफ चलता रहता है | ऐसा रोज नहीं होता है , पर जिस दिन ऐसा होता है उस दिन बेचारे व्यापारियों की शामत आ जाती है | बेचारे करें भी तो क्या |कम आमदनी वाले ये लोग मोटा पैसा लगाकर कहीं स्थायी व्यापार तो लगा नहीं सकते , लिहाजा आज यहाँ तो कल कहीं किसी फुटपाथ पर चलता रहता है | समय का चक्र आगे बढ़ता रहता है और उसी क्रम में यह बाजार भी | शाम की शुरुवात के साथ यह बाजार सिमटने लगता है | व्यापारी अपना सब समेटकर अपने घरों को लौट जाते हैं | अब लगता है कि थोड़ा सुकून मिल जाएगा | पर ऐसा कहाँ सम्भव हो पाता है | दिन ढलने के बाद शाम के व्यापारियों की शुरूवात हो जाते है | एक निर्जन पड़ा फुटपाथ फिर से जीवंत हो उठता है | यह सिलसिला भी कुछ पलों के बाद थम जाता है | अब लगता है कि नीरवता आ गयी हो | पर नहीं असली चहल- पहल का समय तो अब आता है | शहर भर के    बेघर – बेसहारा लोग, दिन भर इधर उधर भटकने के बाद चैन की नींद लेने के लिए मेरे आगोश में आ बैठते हैं | कभी लकड़ी सुलगाकर, तो कभी बेकार पड़े प्लास्टिक और  पॉलीथीन जलाकर कच्ची पक्की रोटी बनाकर बड़े सुकून से आपस में मिल बांटकर ग्रहण करते हैं | भोजन का ऐसा अप्रतिम आनंद तो मुझे लगता है पंच-तारा होटलों के भोजन के स्वाद में नहीं होगा | रैन बसेरा तक ही यह सीमित नहीं होता है | ये शरणार्थी इसी फुटपकथ पर शादी- विवाह से लेकर हर प्रकार के रश्मों रिवाजो में बंधते  हैं | बल बच्चेदार बनते है , वृद्धावस्था में प्रवेश करते हैं और फिर दुनिया से कूच कर जाते हैं | दिन भर के बिछुड़े हुए ऐसे मिलते हैं जैसे जन्मों बाद मिल रहे हों | अब यह मिलन सदा प्रेम मिलन ही हो जरूरी नहीं | कुछ व्यसन के शौकीन शरणार्थी भी तो होते है | ऐसे लोग पास सोते हुए लोगों की परवाह न कर आपस में झगड़ा- फसाद भी कर ही डालते हैं , अब वो  चाहे अपनी घरवाली से हो या फिर अन्य लोगों से | कभी -कभी तो इन्हें शांत करने के लिए पुलिस तक को  आना पड़ जाता है | अब यदि पुलिस आयी तो बाकी बेचारों को भी बेघर होना पद जाता है | पकडे जाने के भय से सब पलायन करने लगते हैं | जबतक मौसम मेहरबान है तबतक गर्मी अथवा सर्दी हो , ये मेरा साथ नहीं छोड़ते हैं , पर जैसे ही बर्षात की शुरुआत होती है , मेरे साथ-साथ इनपे भी शामत आ जाती है | कुछ तो यूँ ही भीगते हुए बर्षात के ख़त्म होने का इंतजार करते है तो भीगने से बचने के लिए कोटरों की तलाश में भटकने लगते हैं | यह इनके लिए कठिनतम समयों से एक होता है | पर बेचारे करें भी तो क्या |यूँ ही लुढ़कते- लुढ़कते जीवन के अंतिम पड़ाव तक पहुँच ही जाते हैं | धीरे धीरे रात  गहराती है , दिन के उजाले लाने के लिए घड़ी अग्रसर होने लगती है | ये निवासी उठकर दिन भर के दिनचर्या की शुरुवात कर डालते हैं | पानी का ड्रम लेकर क्या महिला , क्या पुरुष सभी बारी - बारी से स्नान करने लगते हैं | जो निपट गया वो भोजन बनाने में लग जाता है | फटाफट भोजन बनाकर , खाकर अपना सब सामान समेत किसी पेड़ की डाली या दीवार की कोटरों में छुपाकर सब इधर उधर हो जाते हैं | लगता है जैसे यहाँ कभी कोई रहा ही ना हो | अलार्म बजना , सेहताकांक्षी वीरों का आगमन और फिर से पूरा चक्र चल पड़ता है |हमेशा सोचता रहता हूँ कि शायद आज शांत रहे माहौल , पर निरंतर सबकुछ चलता रहता है |

      इस कहानी में मैं तो जैसे खो सा गया था , तभी पीछे से श्रीमतीजी ने आवाज लगाई , “ कहाँ खो गए हो , आगे भी चलना है , चलो बढ़ो |” मुस्कुराते हुए मैंने फुटपाथ को विदा कहा और मैं भी अपनी दिनचर्या में लग गया

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