शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

तुम्हारे बाद



      खबर आयी कि 'बाबा' का अस्पताल में देहांत हो गया है | खबर ऐसी कि कानो को विश्वास न हो | पर सत्य सामने था, जिसपर अविश्वास नहीं किया जा सकता था | सभी लोग अस्पताल की तरफ भागे जहां  'बाबा' ने अंतिम साँसे ली थी | अस्पताल की साड़ी औपचारिकताएं ख़त्म कर रात बारह बजे उनके पार्थिव शरीर को उनके घर लाया गया | कड़ाके की ठण्ड पद रही थी | हिन्दू रिवाज के अनुसार किसी के भी पार्थिव शरीर को घर के अंदर नहीं ले जाया जाता है | रखने के लिए बहुत जद्दोजह के बाद तय हुआ कि मकान की ड्योढ़ी पर लिटा दिया जाए | समय के अनुसार परिवार के अधिकाँश लोग साथ में बैठे रहेंगे, उजाला होने तक | सुबह की पहली किरण के साथ उनके अंतिम यात्रा की तैयारी किये जाने का विचार बना |

      उनके पुत्र कोई था नहीं | दो बेटियां थी जो पास-पास ही रहती थी | रिटायरमेंट और बुढ़ापे के कारण बाबा एवं उनकी पत्नी अपनी बेटियों पर आश्रित थे, पर उनके नाम कुछ जमा पूंजी अवश्य थी ,कुछ रकम पेंशन के रूप में मिल जाती थी | एक जमीन का टुकड़ा था जिसपर आवश्यकता से अधिक मकान बने हुए थे | गाँव पर भी संयुक्त परिवार में कुछ जमीने थी जो बाबा के नाम पर थी | इन सबके भरोसे बाबाजी ने अपने और अपनी पत्नी के लिए बुढ़ापा काटने की योजना बनाया था, पर हां री किस्मत, इंसान सोचता कुछ और है, होता कुछ और है |

      धीरे-धीरे सारे परिचित एवं रिश्तेदार जमा होने लगे | बाबाजी के छोटे भाई के लड़के भी उसी मुहल्ले में रहते थे | वो लोग भी पूरा परिवार सहित आ जुटे | एक तरफ गाँव- समाज के सारे लोग इकठ्ठा होकर अंतिम यात्रा के लिए तैयारियां करने में लगे हुए थे वहीं दूसरी तरफ कुछ महिलाएं गपशप में लगी हुई थी | उनके से एक ने कहा कि मुखाग्नि तो बेटा द्वारा दिया जाना चाहिए | यदि बेटा नहीं है तो भतीजे द्वारा दी जानी चाहिए | यहाँ तो उल्टी गंगा बाह रही है | बेटा नहीं है तो क्या हुआ , भतीजा को ही आगे बढ़कर मुखाग्नि देना चाहिए | यदि दामाद अथवा दामाद के पुत्र द्वारा  मुखाग्नि दी जाती है तो दिवंगत आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी  | जितने मुह उतनी सलाहें | तभी किसी ने कहा कि 'बाबा' की संपत्ति पर बेटियों का पहला हक़ होता है | यदि मुखाग्नि बेटी की तरफ से नहीं दिया गया तो हो सकता है कि उनकी संपत्ति में बेटी- दामाद को कोई हिस्सा ना मिले , इसलिए अच्छा होगा की हर हाल में यह सेवा बेटी के पुत्र (नाती ) द्वारा ही दिया जाना चाहिए ,चाहे कुछ भी हो जाए |  वैसे तो कानूनन जायदाद में बेटियों का हक़ बनता है पर क्या पता यदि भतीजे ने सबके सामने मुखाग्नि दिया तो पंचों का मत भतीजे की तरफ हो जाए और फिर जायदाद में भतीजे को हिस्सा देना पड़े | अंतिम यात्रा की तैयारियां चलती रही, साथ ही तर्कों- वितर्कों का माहौल भी |

      हकीकत में 'बाबाजी' के भतीजे अंतिम बार बाबाजी के नौकरी से सेवानिवृति के दिन आये थे , उस दिन घर के प्रत्येक सदस्य को उन्होंने कुछ ना कुछ उपहार दिया | किसी को गहने तो किसी को  नकद धनराशि | उसके बाद आज का दिन है जब उनके अंतिम यात्रा के समय | बाबाजी की विधवा घर के के कोने में बैठी इन सब चर्चाओं से दूर , रो- रो कर  उनके आँखों के पानी भी जैसे सूख गए हों , गला भी सूख गया हो ऐसा जान पड़ता था | ना तो करूण  विलाप की आवाजें ना ही आंसुओं की धारा | लग रहा था जैसे जड़ हो चुकी हो | बस हलके से हिलते हुए होठ इतना ही बयान कर पा रहे थे , “मेरे जाने से पहले ही तुम क्यों चले गए, अब मेरा क्या होगा, किससे लड़ूंगी, किसे अपनी बातें सुनाऊँगी |” उनकी दशा देख कुछ पुरानी  यादें जैसे ताजी हो चली | ऐसे जीवंत इंसान , जहाँ भी जाते थे शमा बांध जाती थी | बुजुर्ग हो या बालक , सभी उनकी अदाओं के कायल थे | हर तरफ उनका सम्मान होता था | 'माताजी' यानी 'बाबाजी' की पत्नी भी जैसे करुणामयी की रूप हों | धार में बहले ही कितना भी अभाव हो , लेकिन हर आगंतुक की सेवा को सदा तत्पर रहती थी | कोई भी ऐसा व्रत -त्यौहार नहीं था जिसे मनाते ना रहे हों | ईश्वर भी ना जाने क्या क्या करता है | यह तो सत्य था बाबाजी के जाने के बाद माताजी की दशा के बारे में सोच पाना भी असहज बना देता था |

      जैसे तैसे समस्त तैयारी के बाद बाबाजी का अंतिम संस्कार किया गया | चर्चाओं से जैसा जाहिर था, भतीजे चाह कर भी मुखाग्नि ना दे सके | प्रमाण के रूप में समस्त घटनाक्रम का फोटोग्राफी किया गया | सब कुछ समाप्त होने के बाद मेहमान अपने घर चले गए , पड़ोसी अपनी दुनिया में खो गए | कुछ दिनों के बाद मैं माताजी से मिलने उनके घर गया | बाहर चारपाई पर कंकाल के रूप में एक महिला को बैठा देखा | वक्की पहचान नहीं पाया कि ये वही माताजी हैं जिनसे मिलते ही मुस्कराहट और मिश्रित बातों की झड़ी ऐसी लग जाती थी कि समय का बीतना पता ही नहीं चलता था | मैं पास गया और उनसे हाल पूछा | करुण क्रंदन के साथ उन्होंने शुरू किया ,”बेटा देखो कैसे धोखा देकर चले गए | बोला करते थे कि तुम्हारा अंतिम संस्कार किये बिना इस दुनिया से नहीं जाऊंगा | सदा सुहागन रहने के लिए मैंने क्या-क्या नही किया | जिसने जो भी सिखाया वही सब पूजा पाठ किया | पर अंत में इतना धोखेबाज निकलेगा मैंने सोचा भी न था | देखो अकेले छोड़ कर खुद निकल लिए |क्या बिगाड़ा था मैंने उनका या फिर भगवान का |” उन्होंने खाना- पीना सब छोड़ दिया था | तीन-तीन दिन बीत जाता था , लेकिन कुछ खाना नहीं चाहती थी | समय के साथ- साथ आग्रह कर खिलाने वाला भी कोई ना था | सब अपनी दुनिया में मस्त थे | अब बेचारी बुढ़िया के लिए वक्त था भी किसके पास | जिसे जो लेना था , जिसे जो मिलना था वह सब तो अब ख़त्म हो चुका था | फिर मतलब क्या था | बस एक लोकलाज था जिसक कारण लोग उनको ढो रहे थे | मैंने बहुत आग्रह किया , चलो मेरे हाथ से एक रोटी ही खा लीजिये | अनुनय- विनय के बाद थोड़ी सी रोटी खा सकी | अब तो बस एक ही रट थी | बेटा तुम्हारे बाबा बुला रहे हैं , बहुत कष्ट में है , मुझे जाना होगा | बस इस धारा का भोग कुछ ही दिन और लिखा है | मैंने बहुत समझाना चाहा कि फिर से जीवन को सवाँरे | अपना मन हम सब में लगाये | पर एक ही धुन थी | उनके बाद अब और कुछ नहीं , बस अब जाना है बेटा |

      और फिर कुछ दिन के बाद एक खबर आयी | माताजी चल बसी | फिर से वही भावनाओं का ड्रामा चला होगा | अपने अनुसार सबने उनके जाने पर दुःख व्यक्त किया होगा , पर मुझे लगा जैसे सपने में आ कर कह रही हों, “बेटा मैं चली उनके पास , अब जाकर चैन आया है |” उन दोनों जनो  के जाने के बाद एक शून्य का अहसास तो होता है , पर लगता है जैसे माताजी मई मृत्यु नहीं , उन्हें एक नया जीवन मिल गया है |    



_ बिनय कुमार शुक्ल

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