शनिवार, 17 सितंबर 2016
कविता कुंज -मेरी कविताओं का संग्रह
शुक्रवार, 16 सितंबर 2016
अफवाह- लेखिका नीलम कुमारी, सूरत
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लेखिका : नीलम कुमारी
पता : कर्मचारी
राज्य बीमा निगम , उप क्षेत्रीय कार्यालय , सूरत
गुजरात – 395001
ई मेल : neelam.kumari25@esic.in
आत्महत्या के बाद
हाय ! ये मैंने क्या कर डाला|
आवेश, हताश और आक्रोश के तगड़े झंझावात में फॅंसा हुआ था| कहीं से भी राह नजर नहीं आ रही थी| कोई दिखता भी तो न था जो इस अंधे कुॅंए से
निकलता| क्या करता? उबड़-खाबड़ रास्ते और फिर लोगों की कहकही
भरी नजरें, किसी का भी तो सामना न कर सका था| सोचा मुक्ति का यह पथ चुन लूॅं| शायद और शायद और कुछ सूझ भी नहीं पाया| महीनों इस पथ पर भटकता रहा.....भटकता रहा| अंत में एक दिन आया जब हर पथ से मैंने छुटकारा पाने के लिये
सुगम राह निकाला, घर में ही इस जीवन की लीला को
समाप्त करने का साधन जुटाया और एक पल में प्राण पखेरू उड़ गये|
पर यह क्या? शरीर मेरा अधर में झूल रहा है, मै......मै इस शरीर से बाहर खड़ा अपने शरीर, अपने घर, अपने आस-पास के वातावरण को निहार रहा था|
एक तरफ पत्नि कभी दीवारों से सिर
टकरा-टकरा कर रो रही है, रोते-रोते बेहोश हो जा रही है, होश में आती फिर क्रन्दन करते करते बेहोश हो जा रही है| हाय हाय की चीख चारों ओर गूॅंज रही है| मेरी प्यारी 'सुनयना'
जिसके चेहरे पर कभी
कॉंटो के चुभन के अहसास को देखकर भी मैं व्यग्र हो उठता था आज वही विक्षिप्त हुए
जा रही है और वह भी मेरे कारण!!
यह क्या ? मैं उसको छू भी नहीं पा रहा हूॅं| मेरे स्पर्श का उसे जरा भी भान नहीं हो पा रहा है| कैसे चुप कराऊॅं ? क्या करूॅं?
हे प्रभु ?? और मेरे लाल दो के दोनो अनाथ बने बैठे है| 'हाय रे बेदर्दी कैसे कटेंगे इनके दिन? इतना भी तो नहीं कि किसी का सहारा मिले| अचानक मेरे मन में दो दिन पूर्व की घटना
कौंध उठी, रास्ते में छ: साल के एक बच्चे को कचरा चुनते एवं उसमें
फेंके हुये सड़े जूठन को खाते देखा था| उसके
भी तो मॉं-बाप ने आत्महत्या ही किया था| तो क्या हमारे बच्चे भी…….. .
परिजन, सुजन,
सहपाठी सभी विलाप कर
रहे हैं| मेरे कृत्य को कोस रहे हैं| सारे ही मुझसे प्यार करते थे जो जीतेजी मैं
कभी समझ न सका था|
आह! यह मैंने क्या किया ? दो
पल की नादान हवायें एक ही झटके में शरीर से आत्मा को अलग कर बैठीं| अब तो इस शरीर में प्रवेश का कोई राह भी नजर
नहीं आ रहा | इसपर बैठ तो जा रहा हूॅं पर इसमें
दुबारा प्रवेश नहीं कर पा रहा हूॅं| अरे
! यह क्या?? पुलिस वाले सुनयना के हाथों में बेडि़या डाल रहे हैं? अरे सुनो भाई उसे क्यों तंग करते हो? आह मेरी आवाज कोई सुन भी नहीं पा रहा है ? अरे कोई तो सुनो? कुछ तो करो ?
मेरे शरीर को भी साथ
ले जा रहे हैं| जिस तन को नित नये प्रसाधनों से
सजाया करता था उसे इस बेदर्दी से घसीटा जा रहा है, सोचा भी न था|
ओह इसे फाड़ा जा रहा
है| हाय री किस्मत……… .
मैं विलाप कर उठा| मन तो रो ही रहा था अब तन भी रो रहा है| जिनकी खातिर मैं परेशानियों को झेलता रहा अब
उन्हीं पर बिजली गिरा बैठा|
लोट पोट होकर, दहाड़े मारकर रोता रहा पर कोई सुनने वाला न
था| क्यों किया मैंने ऐसा, क्यों किया ? पर अब कोई प्रतिकार नही है, कोई उपचार नहीं है|
पीछे से मेरे कंधे पर एक स्पर्श का
अहसास हुआ | मुड़कर देखा मेरे दिवंगत पिताश्री
खड़े थे, बढ़ी हुई दाढ़ी, लम्बे नख-केश|
मैं उनसे लिपटकर रो
पड़ा|
बेटे, मुक्ति का मार्ग कहीं नहीं है| इसी धरा पर जीवन एवं उसके बाद भी अपनी अधूरी जिन्दगी के पलों को
बताना पड़ता है| यूॅं ही भटकना पड़ता है| हमें किसी को कोई अधिकार नहीं है जिन्दगी से
मुॅंह-मोड़ने का यदि यह भूल जो तुम कर आये
उसे कोई करता है तो उसे अपनी अधूरी आयु को पूरा करने के लिये इस मृत्युलोक में
भटकना ही पड़ता है|
अब स्वयं देखो मेरा
अधूरा जीवन मुझे अब भी भोगना पड़ रहा है| शून्य
में विलीन होने से पहले तक|
यदि जीवन के साथ होते
तो अपने अधूरे-जीवित संसार को सम्हालते पर अब तो ……….. .
इतिहास के पन्नों से : रानी रासमणि
भारत की
वीरांगनाओं में पश्चिम बंगाल की वीरांगना रानी रासमणि का एक महत्वपूर्ण स्थान है | उन दिनों जबकि
भारतीय समाज गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था | समाज के हर क्षेत्र में नारी उपेक्षित ही रहती थी, उन दिनों रानी
रासमणि ने समाज सुधार एवं अंग्रेजों से लोहा लेने में किंचित मात्र भी संकोच नहीं
किया | मध्य 19 वीं शताब्दी में
पुरुष प्रधान समाज में उनका एक विशिष्ट दबदबा था | दिनांक 28 सितम्बर 1793 को पश्चिम बंगाल के वर्तमान समय के उत्तर 24 परगना जिला के
कोना नामक ग्राम में उनका जन्म हुआ था | उनके पिता एक
प्रतिष्ठित जमींदार थे | 11 वर्ष की उम्र में उनका विवाह कलकत्ता के जान बाजार
क्षेत्र के प्रतिष्ठित जमींदार बाबू राजाचंद्र दास से हुआ | पिता और पति के
घर जमींदारी होने के कारण बचपन से ही उनके अंदर नेतृत्व क्षमता विद्द्मान थी | दयालु स्वभाव, धर्म में रूचि
एवं भक्ति में आस्था उनके अंदर बचपन से भरा हुआ था | अल्पायु में ही वैधव्य का दुःख उनके ऊपर आन पड़ा | पति के देहांत
के बाद पूरे जमींदारी का भार इन्होने अपने कंधे पर ले लिया | बंगाल में विधवाओं की स्थिति उन दिनों
काफी खराब थी तथापि अपने दूरदर्शिता, धार्मिक आस्था एवं लगन से समस्त नकारात्मक शक्तियों को
पराजित करते हुए बड़े ही कुशलता पूर्वक उन्होंने जमींदारी का भार सँभालते हुए
पुरुषों का नेतृत्व किया | पद्मिनि, कुमारी, करुणामयी और जगदम्बा नामक उनकी कुल चार बेटियां थीं, जिनमें से विवाह
के दो वर्ष के बाद करुणामयी की मृत्यु हो गई | इन्हे कोई पुत्र नहीं था |
कहा जाता है कि
माँ काली में विशेष आस्था के कारण स्वप्न में उन्हें दक्षिणेश्वर में माँ काली के
मंदिर निर्माण की प्रेरणा मिली | इस प्रेरणा से सं 1855 में इस मंदिर का निर्माण हुआ | यह भी कहा जाता
है कि गदाधर नामक एक पुजारी को दक्षिणेश्वर के इस काली मंदिर में पूजा अर्चना करने
के लिए रानी रासमणि द्वारा नियुक्त किया गया था | कालांतर में चलकर यही गदाधर स्वामी रामकृष्ण परमहंस
कहलाए | ऐसा नहीं कि
उन्होंने मात्र मंदिरों का ही निर्माण करवाया हो | समाज के अन्य के क्षेत्र में भी उन्होंने विकास कार्य
करवाया | उन्होंने तीर्थ
यात्रियों की सुविधा के लिए सुवर्णलेखा नदी से पारी तक सड़क निर्माण करवाया, गंगा किनारे के
घाट बनवाए जिनमें कलकत्ता का बाबूघाट प्रमुख है, जिसे उन्होंने अपने पति की याद में बनवाया था | इम्पीरियल लाइब्रेरी जिसे वर्तमान समय में नेशनल
लाइब्रेरी के नाम से जाना जाता है, हिन्दू कॉलेज जिसे अब प्रेसिडेंसी कॉलेज के नाम से
जाना जाता है, उनके निर्माण के
लिए भी उन्होंने काफी रकम का सहयोग दिया |
ऐसे ही एक बार
अंग्रेजी हुकूमत ने मछुवारों द्वारा गंगा में मछली पकड़ने पर कर लगवा दिया | कर न देने पर
मछली पकड़ने की मनाही कर दी गई | इससे मछुवारों को काफी मुश्किल का सामना करना पड़ रहा
था | मछुवारों की
गुहार पर उन्होंने गंगा में कई स्थान पर लोहे की जंजीर डलवा दिया | इन जंजीरों के
कारण आवागमन करने वाले पानी के जहाजों को काफी नुकसान होने लगा | अंत में हारकर ब्रिटिश सरकार को अपना
फरमान वापस लेना पड़ा और मछुवारों को मछली पकड़ने की आजादी प्राप्त हो गई | इसी प्रकार से
दुर्गा पूजा के समय पूजा के जुलूस पर यह कहते हुए पाबंदी लगा दी गई कि इससे शांति
भंग होती है और जनता को असुविधा होती है | ब्रिटिश राज के इस हुक्म का उन्होंने कड़ा विरोध किया
और हर पाबन्दी के बावजूद पूरे धूम-धाम से
दुर्गोत्सव मनाया गया | इसमें जनता ने भी रानी का साथ दिया | जनता के अकड़े विरोध के कारण ब्रिटिश राज
ने अपना यह फरमान भी वापस लिया | जनता के हित के लिए अंग्रेजी हुकूमत से उनका हमेशा
विरोध रहा |
सुंदरवन के कुछ
क्षेत्र के मालिक प्रिंस द्वारकानाथ टैगोर ने ब्रिटेन जाने के लिए अपनी कुछ जमीन
को रानी रासमणि के पास गिरवी रखा | (यह क्षेत्र वर्तमान दक्षिण 24 परगना जिला के
संतोषपुर और उसके आसपास का क्षेत्र है) | उन दिनों इस क्षेत्र में आबादी नहीं के बराबर थी | कुछ असामाजिक
तत्वों का यहाँ बसेरा हुआ करता था | इस क्षेत्र में मछुवारों को मत्स्यपालन के लिए
प्रोत्साहित किया और उनका भरपूर सहयोग किया | धीरे-धीरे यहाँ मत्स्यपालन के कई छोटे-छोटे केंद्र
विकसित हो गए | इस क्षेत्र में
बसे हुए असामाजिक तत्व भी समाज की मुख्य धारा में शामिल होकर मत्स्य पालन के
कारोबार में लग गए | उनके इस प्रयास ने समाज सुधार की दिशा में एक
क्रांतिकारी परिवर्तन किया |
सन 1855 में उनका देहावसान हो गया | कलकत्ता के कई
हिस्से में उनके नाम की सड़कें और भवन आदि आज भी उनकी याद दिलाती हैं | उनके सम्मान में
भारतीय डाक विभाग द्वारा डाक टिकट भी जारी किया गया | समय के साथ उनका पुराना निवास आज जर्जर हालत में पहुँच
चुका है | हालाँकि कलकत्ता
नगर निगम ने इस हवेली की देखरेख का जिम्मा उठाया है पर अभीतक जीर्णोद्धार की
प्रक्रिया प्रारम्भ नही हो पाई है |
उनके द्वारा दिए
गए समाज सुधार के कार्य, अंग्रेजों से भारतीयों के हक़ के लड़ाई और स्वाभाव के
कारण वो सदैव पूजनीय रहेंगी |
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