शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

आत्महत्या के बाद




      हाय ! ये मैंने क्या कर डाला|
      आवेश, हताश और आक्रोश के तगड़े झंझावात में फॅंसा हुआ था| कहीं से भी राह नजर नहीं आ रही थी| कोई दिखता भी तो न था जो इस अंधे कुॅंए से निकलता| क्या करता? उबड़-खाबड़ रास्ते और फिर लोगों की कहकही भरी नजरें, किसी का भी तो सामना न कर सका था| सोचा मुक्ति का यह पथ चुन लूॅं| शायद और शायद और कुछ सूझ भी नहीं पाया| महीनों इस पथ पर भटकता रहा.....भटकता रहा| अंत में एक दिन आया जब हर पथ से मैंने छुटकारा पाने के लिये सुगम राह निकाला, घर में ही इस जीवन की लीला को समाप्त करने का साधन जुटाया और एक पल में प्राण पखेरू उड़ गये|

      पर यह क्या? शरीर मेरा अधर में झूल रहा है, मै......मै इस शरीर से बाहर खड़ा अपने शरीर, अपने घर, अपने आस-पास के वातावरण को निहार रहा था|

      एक तरफ पत्नि कभी दीवारों से सिर टकरा-टकरा कर रो रही है, रोते-रोते बेहोश हो जा रही है, होश में आती फिर क्रन्दन करते करते बेहोश हो जा रही है| हाय हाय की चीख चारों ओर गूॅंज रही है| मेरी प्यारी 'सुनयना' जिसके चेहरे पर कभी कॉंटो के चुभन के अहसास को देखकर भी मैं व्यग्र हो उठता था आज वही विक्षिप्त हुए जा रही है और वह भी मेरे कारण!!

      यह क्या ? मैं उसको छू भी नहीं पा रहा हूॅं| मेरे स्पर्श का उसे जरा भी भान नहीं हो पा रहा है| कैसे चुप कराऊॅं ? क्या करूॅं? हे प्रभु ?? और मेरे लाल दो के दोनो अनाथ बने बैठे है| 'हाय रे बेदर्दी कैसे कटेंगे इनके दिन? इतना भी तो नहीं कि किसी का सहारा मिले| अचानक मेरे मन में दो दिन पूर्व की घटना कौंध उठी, रास्ते में छ: साल के एक बच्चे को कचरा चुनते एवं उसमें फेंके हुये सड़े जूठन को खाते देखा था| उसके भी तो मॉं-बाप ने आत्महत्या ही किया था| तो क्या हमारे बच्चे भी…….. .

      परिजन, सुजन, सहपाठी सभी विलाप कर रहे हैं| मेरे कृत्य को कोस रहे हैं| सारे ही मुझसे प्यार करते थे जो जीतेजी मैं कभी समझ न सका था|

      आह! यह मैंने क्या किया ? दो पल की नादान हवायें एक ही झटके में शरीर से आत्मा को अलग कर बैठीं| अब तो इस शरीर में प्रवेश का कोई राह भी नजर नहीं आ रहा | इसपर बैठ तो जा रहा हूॅं पर इसमें दुबारा प्रवेश नहीं कर पा रहा हूॅं| अरे ! यह क्या?? पुलिस वाले सुनयना के हाथों में बेडि़या डाल रहे हैं? अरे सुनो भाई उसे क्यों तंग करते हो? आह मेरी आवाज कोई सुन भी नहीं पा रहा है ? अरे कोई तो सुनो? कुछ तो करो ? मेरे शरीर को भी साथ ले जा रहे हैं| जिस तन को नित नये प्रसाधनों से सजाया करता था उसे इस बेदर्दी से घसीटा जा रहा है, सोचा भी न था| ओह इसे फाड़ा जा रहा है| हाय री किस्मत……… .

      मैं विलाप कर उठा| मन तो रो ही रहा था अब तन भी रो रहा है| जिनकी खातिर मैं परेशानियों को झेलता रहा अब उन्हीं पर बिजली गिरा बैठा| लोट पोट होकर, दहाड़े मारकर रोता रहा पर कोई सुनने वाला न था| क्यों किया मैंने ऐसा, क्यों किया ? पर अब कोई प्रतिकार नही है, कोई उपचार नहीं है|

      पीछे से मेरे कंधे पर एक स्पर्श का अहसास हुआ | मुड़कर देखा मेरे दिवंगत पिताश्री खड़े थे, बढ़ी हुई दाढ़ी, लम्बे नख-केश| मैं उनसे लिपटकर रो पड़ा|

      बेटे, मुक्ति का मार्ग कहीं नहीं है| इसी धरा पर जीवन एवं उसके बाद भी अपनी अधूरी जिन्दगी के पलों को बताना पड़ता है| यूॅं ही भटकना पड़ता है| हमें किसी को कोई अधिकार नहीं है जिन्दगी से मुॅंह-मोड़ने का यदि यह भूल जो तुम कर आये उसे कोई करता है तो उसे अपनी अधूरी आयु को पूरा करने के लिये इस मृत्युलोक में भटकना ही पड़ता है| अब स्वयं देखो मेरा अधूरा जीवन मुझे अब भी भोगना पड़ रहा है| शून्य में विलीन होने से पहले तक| यदि जीवन के साथ होते तो अपने अधूरे-जीवित संसार को सम्हालते पर अब तो ……….. .  

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