कल रात चौराहे पर ,
एक फटेहाल बुढ़िया नजर आई ।
साजों से संवरी सुंदर वेश में,
पर ममता की भूखी नजर आई ।
अचानक उसकी नजर मेरे नजर से टकराई,
डबडबाती आँखों से अश्कों की बूंदें,
उसके नैनों से बह रहे थे ,
उसके सिसकते होठ, लड़खाते कदम ,
बहुत कुछ कह रहे थे ।
मैंने उसे अपने पास बुलाया,
चौराहे पर टंगे एक पोस्टर
जिसपर लिखा था,
“हिन्दी हमारी जान है,
इसे जन जन तक पहुंचाओ”
उसे फाड़ा, जमीं पर बिछाया
और उस अबला को उसपर बिठाया।
मैंने पूछा,
माई बता तू कौन है ?
सजी संवरी है फिर भी फटेहाल है ,
बता कहाँ से तू आई है,
और क्यों ऐसा तेरा हाल है ?
उसने कहा,
बेटा मैं इस वतन के माथे की बिंदी हूँ,
मैं तेरे गुलशन की राजभाषा ‘हिन्दी’ हूँ ।
मैंने पूछा,
माई तू इतनी समृद्ध है,
फिर भी तेरा ये हाल है ।
जरा खुलकर बताओ, कैसा ये गोलमाल है ।
वो बोली बेटा ,
कागजों में तो मैं राजभाषा मानी जाती हूँ ,
पर पिछड़ों की भाषा के रूप में जानी जाती हूँ ।
मुझे अपनाने वाला पिछड़ा कहलाता है ,
अपने ही देश में ठोकरें वो खाता है ।
हर मुल्क के लोग अपनी भाषा पर इतराते हैं,
पर मेरे अपने ही मुझे अपनाने से शर्माते हैं।
इसलिए आज मैं फटेहाल और बेहाल हूँ ।
साल में एक पखवाड़ा
मेरे नाम का मनाया जाता है,
कहीं महफिलें लगती हैं ,
कहीं जलसा लगाया जाता है ।
कुछ नारे बाजी, कुछ वादे किए जाते हैं ,
जो बाद में धरे के धरे रह जाते हैं ।
आज में वहीं से आ रही हूँ,
इस क्षणिक सम्मान पर इतरा रही हूँ,
भविष्य की बात सोचकर घबरा रही हूँ ।
लोगों का यह वर्ताव,
इस गुलशन
को कहाँ ले जाएगा ,
बनकर गूंगा ये वतन बस तडफड़ाएगा,
अपने दिल की बातें किसी से कह नहीं पाएगा,
और फिर घुट घुटकर मर जाएगा ।
हे लाल मेरे, मुझे गैरों से नहीं शिकवा कोई,
मुझे तो अपनों ने ही ठुकराया है ,
उड़ाकरा माखौल मेरा,
मुझे इस
हाल में पहुचाया है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी टिप्पणी के लिये आभार।हम शीघ्र ही आपसे जुड़ेंगे।