शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

फुटपाथिया प्रेम



वसंत का महीना पुरातन भारतीय संस्कृति में प्रेम के महीने के रूप में जाना जाता था । वसंतोस्तव मनाने की परंपरा का जिक्र भिन्न भिन्न   साहित्य में भिन्न रूपो में वर्णित है । प्रेम की परिकल्पना एवं परिभाषा का वर्णन कवि , साहित्यकार , पत्रकार , वैज्ञानिक ,सिपहसालार सबने अपने अनुभव एवं अनुमान के अनुसार किया है । सबकी अपनी एक विधा है । वक्त बदलता गया , साथ ही प्रेम के मायने भी उसे प्रकार बदलते रहे । मुगल आएतो उनके काल में प्रेम का प्रतीक बनकर उभरा ताजमहल जिसे अधिकांश जनसंख्या ने चूमा एवं सराहा । वक्त थोड़ा और बदला । अंग्रेज़ का पदार्पण हुआ । अंग्रेजों ने अपने चलन के अनुसार प्रेम की परिकल्पना एवं चलन बनाया । देश को उनके चंगुल से मुक्त करने के लिए लोगों में देश प्रेम नामक एक अलग प्रेम की परिपाटी देखने को मिली जिसमें प्रेम का रुझान किसी जीवंत शरीर के प्रति ना होकर मातृभूमी के लिए ज़्यादातर रही । समय के साथ हमारा देश आजाद हुआ । देश प्रेम का जज्बा लोगों में स्वदेशी के प्रति रुझान एवं जुड़ाव बढ़ाता रहा । आजादी अपने साथ कई फटकार की आजादी लेकर आई । समय थोड़ा और आगे बढ़ा  देश प्रेम की भावना धीरे धीरे ठंडी पड़ने लगी । इसी के साथ पाश्चात्य शैली के प्रति हमारा रुझान बढ़ने लगा । पाश्चात्य संस्कृति के प्रति हमारा रुझान कुछ यूं बढ़ा कि हमे अपने देश की भाषा , रहन सहन , वेश भूषा सबकुछ पिछड़ा एवं दक़ियानूसी लगने लगा । अब तो स्थिति ऐसी हो गई कि पाश्चात्य वेषभूषा में भिखारी भी हमे संस्कार वाला लगने लगा । यहीं से हमारे यहा प्रेम की परिपाटी एवं परिभाषा भी बदलने लगी । भारतीय फिल्मों में अबतक नायक नायिका सिर्फ पेड़ों के इर्द गिर्द घूमकर एक दूसरे से प्रेम का इजहार करते नजर आते थे , गलियों में ना घूमकर प्रेम की अभिव्यक्ति घर तक सीमित रहती थी । धीरे धीरे बाजारवाद का प्रादुर्भाव हुवा । हम जो अबतक संस्कारों में लिप्त बैठे थे , समस्त वंधनों को तोड़कर स्वछंद हो उठे । इस स्वछंदता के आलाम में पेड़ों के चरो तरफ फिरने वाले प्रेमी अब पार्कों के हर कोने में गले में गले डाले अश्लील हरकते करते हुवे नजर आने लगे । एक बार हम किसी मशहूर पार्क में अपने दो छोटे बच्चों के साथ घूमने गए । वहाँ पहुँचकर आलम कुछ यूं दिखा कि हमारे साथ-साथ पेड़ पौधे भी शर्माने लगे । उस दिन से हमने पार्को में जाने से तौबा कर लिया ।
बाजारवाद ने इन सब माहौलों का काफी फायदा उठाया । इस क्रम में प्रेम की अभिव्यक्ति पार्कों से उठकर गली-कूची , चौबारों से होते हुए स्कूल कालेजों तक जा पहुंची । और फिर सब खुला खुला हो गया । और फिर धमाक होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई। हमने आज से दस साल पहले किसी वेलेंटाइन डे के खास प्रदर्शनों के बारे में नहीं सुना था । पर अब तो बहार है । वेलेंटाइन दे के नाम पर एक तरफ छद्म प्रेम के प्रदर्शन की होड है तो दूसरी ओर उस उन्मुक्त प्रदर्शन की रोक के लिए प्रयास। कहा जाता है कि जब दो बिल्लियाँ लड़ती हैं तो फायदा बंदर ले जाता है । प्रेम के इस परंपरा का निर्वहन करने वाले नित नए संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं तो विरोध करने वाले नित नए संकल्प । इसमे बाजार को उपभोक्ता , न्यूज चैनलो  को मुद्दा और भी किसी को कुछ । सब अपने में लगे हुए है ।

    बाजार में उपलब्ध इस प्रदर्शन के संसाधनों के समान यह प्रेम भी महज प्रदर्शन की वस्तु बन कर अभिव्यक्ति ना रहकर डिस्पोजेबले वस्तु बनकर रह गई है । कहते है फैशन के युग में गारंटी की आशा ना करें , यही दशा प्रेम के साथ हो गया है । यह प्रेम सड़कछाप प्रेम बनकर रह गया है । 

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