वित्त मंत्री जी का बजट भाषण सुन रहा था । भाषण के दौरान उन्होने एक
बात कहा, जिसके सुनने के बाद काफी लोगों के होश फाख्ता हो गए । उन्होने 63 वर्ष
पुराने भारत के एक मात्र सामाजिक सुधार योजना “कर्मचारी राज्य बीमा योजना” में
बदलाव के बारे में कहा । उन्होने कहा कि कर्मचारी राज्य बीमा योजना में एवं भविष्य
निधि में आंशदान को स्वेच्छिक किया जाएगा । कर्मचारी राज्य बीमा योजना के स्थान पर
व्यक्ति बीमा निगमन प्राधिकरण (IRDA) द्वारा अनुमोदित किसी
भी स्वास्थ्य बीमा को स्वीकार कर सकता है । भविष्यनिधि के स्थान पर राष्ट्रीय पेंशन योजना (NPS) का चुनाव कर सकता है ।
सामाजिक सुरक्षा योजना के अंतर्गत आने वाली ये दो संस्थाएं (ESIC और EPFO) अपने आप में भारत सरकार की अद्वितीय
योजनाएँ हैं जिनमे असंगठित क्षेत्रों के कामगारों के हित में कई प्रकार की योजनाएँ
एवं लाभ वर्णित हैं । EPFO में कार्मिक के वेतन का कुछ
हिस्सा तथा उसके नियोक्ता के तरफ से कुछ हिस्सा जोड़कर भविष्य निधि संगठन के रूप
में जमा किया जाता है । इस जमा रकम पर हर साल एक निश्चित प्रतिशत के अनुसार ब्याज
दिया जाता है । एक औसत आय वाला व्यक्ति समय समय पर अन्य संस्था से उधार ना लेकर इस
निधि से कर्ज लेकर अपनी सामाजिक एवं आकस्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है , तथा एक निश्चित किस्तों में इस रकम को वापस कर देता है । इससे एक तरफ
उसका काम तो हो ही जाता है , साथ ही उसकी रकम पुनः उसके खाते
में जमा हो जाती है । समय के साथ इस रकम को आंशिक अथवा पूर्ण रूप से भी निकालने का
प्राविधान है जिसका उपयोग अधिकांश कार्मिक करते हैं । इसके इतर राष्ट्रीय पेंशन
योजना भी अपने आप में एक बेहतर योजना है जिसमें जमा की गई रकम एक निश्चित उम्र पार
होने के बाद पेंशन के रूप में दी जाती है । इसके अपने नियम एवं प्राविधान है ।
अपने अपने स्थान पर दोनों अतुलनीय है पर यदि भविष्य निधि से इसकी तुलना की जाए तो
भविष्यनिधि में मिलने वाली वो सुविधाएं जिनके बारे में ऊपर की पंक्तियों में मैंने
उल्लेख किया है वो नहीं हैं । इस भारत में ऐसा कोई व्यक्ति नही है जिसे कभी किसी
खास आवश्यकता के लिए अचानक एक बड़ी रकम की आवश्यकता नहीं पड़ती । इन आवश्यकताओं में
किसी लंबी बीमारी के इलाज के लिए पैसे की आवश्यकता पद सकती है , मकान बनाने के लिए या बच्चों के शिक्षा के खर्चे या फिर शादी ब्याह के
खर्चे लगभग हर घर में आते हैं । एक औसत आय वाले कामगार या कार्मिक की बात करें तो इस
प्रकार के खर्चे के लिए रकम का जुगाड़ कर्ज के अलावा और कोई राह नही होता है। इसके
लिए सबसे सुलभ मार्ग भविष्यनिधि से मिल पता है । यदि इस निधि में उसके पैसे जमा
नही होते तो समय पर उसे पैसे के लिए या तो अपने जमीन मकान को बेचना पड़ेगा या फिर
कर्ज देने वाले लोगों से मंहगे ब्याज दर पर उधार लेना होगा । इस प्रकार का कर्ज
उसके लिए गली की फांसी साबित हो सकता है । NPS से पैसे
निकालने या उधार लेने का प्राविधान अबतक नही बना है । ऐसे में उसकी सहायता कौन करे
यह एक बड़ा सवाल है ।
अब ESIC की बात करते हैं । नियामानुसार इस
योजना में अबतक जिन कार्मिकों का मासिक वेतन पंद्रह हजार रुपया से कम है उन्हे
शामिल किया जाता है । कर्मचारी राज्य बीमा योजना में कामगार के वेतन का 1.75% तथा
नियोक्ता द्वारा इस वेतन का 4.75% जोड़कर कर्मचारी राज्य बीमा योजना में जमा किया
जाता है । इस 6.50% की रकम के बदले निगम द्वारा कार्मिक एवं उसके आश्रितों को
मुफ्त चिकित्सा सुविधा, कार्मिक की बीमारी की स्थिति में काम
से उसकी अनुपस्थिती के एवज में बीमारी हितलाभ (नकद), किसी
दुर्घटना में कार्मिक के विकलांग होने की स्थिति में उसे आजीवन पेंशन , कार्मिक की काम के दौरान मृत्यु होने की स्थिति में उसके दाह संस्कार के
खर्चे के लिए उसके आश्रितों को एक निश्चित रकम
नियमानुसार पेंशन के रूप में दिये जाने का प्राविधान है । इन समस्त
सुविधाओं के लिए भारत सरकार की तरफ से निगम को किसी प्रकार का योगदान नही दिया
जाता है । निगम के कार्मिकों से लेकर कामगारों
को दी जाने वाले सुविधाओं के समस्त खर्चे निगम द्वारा स्वयं वहन किया जाता है । अबतक भारत में चल रही किसी भी प्रकार की बीमा
योजनाओं में सम्मिलित रूप से इन समस्त सुविधाओं के लिए कोई भी एकल पॉलिसी नहीं है
। यदि चिकित्सा सुविधा की बात करें तो हर बीमा योजना में चिकित्सा के खर्चे की एक
सीमा निर्धारित होती है । उससे अधिक का खर्च नही दिया जा सकता किन्तु निगम की
योजना में किसी भी प्रकार के खर्चे की सीमा निर्धारित नही होती है। यह खर्च एक
रुपए से लेकर लाखो तक हो सकता है तथा पूरे वर्ष चलता रह सकता है । यही स्थिति अन्य लाभों के संदर्भ में भी लागू है
।
किसी भी योजना में कमी शायद ही होती है । कमी होती है वो उसके
कार्यान्वयन की अड़चनों में होती है । कर्मचारी राज्य बीमा योजना में भी कमी है इस
बात को अस्वीकार नाही किया जा सकता है । सबसे बड़ी कमी है उसकी दी जाने वाली चिकित्सा
सुविधाओं में । मैंने जो मुख्य कमी पाया है उनमें से कुछ का वर्णन निम्नवत है :-
1॰ कामगारों की संख्या के
अनुसार एवं उनके कार्य क्षेत्र के पास चिकित्सा सुविधा का ना होना ।
2॰ चिकित्सालयों में
पर्याप्त सुविधा का ना होना ।
3॰ चिकित्सालयों के समय और
कामगारों के समय का सही मिलान ना होना – इसमें कई ऐसे चिकित्सालय और औषधालय हैं
जिनके खुलने एवं बंद होने का समय ऐसा है जिसके कारण आवश्यकता की स्थिति में कामगार
इसकी सुविधा नही ले पाते हैं ।
4॰ ऊपर की तीन समस्याओं का
निपटारा तो नियम एवं अधिनियम में बदलाव करके किया जा सकता है । परंतु सबसे विकटतम समस्या
है कामगारों के प्रति चिकित्सा सेवा प्रदाता एवं हितलाभ सेवा प्रदाताओं का रवैया एवं
व्यवहार । यूं तो कर्मचारी राज्य बीमा निगम का स्लोगान है “IP IS OUR VIP” , पर यदि यदि कभी
बारीकी से निगम के औषधालयों , चिकित्सालयों तथा शाखाओं में जाकर
देखा जाए तो इस स्लोगान से उलट ही स्थिति पाया जाता है । ऐसा नही है कि यह ब्यवहार
उन्हे सिर्फ निचले स्तर के कार्मिकों से मिलता है । इस प्रकार का व्यवहार अधिकारी से
लेकर चपरासी तक के हर स्तर के कार्मिकों द्वारा एक समान ही मिलता है । कोई विरला ही
होगा जो इनसे ठीक से बात करता हो ।
5.
सूचना का सही सम्प्रेषण भी एक विकट समस्या है । अखबारों एवं मीडिया में तो बड़े बड़े
इश्तेहारों एवं आलेखों द्वारा निगम अपने उपलब्धियों का डंका भले ही पीटता रहे लेकिन
इसके कार्यालयों , चिकित्सालयों
एवं औशाधालयों में कामगारों को दी जाने वाले सुविधाओं के संबंध में, उनके हित के संबंध में कोई सूचना प्रदर्शित नही होती है । यहाँ तक कि कई केन्द्रों
पर उनके खुलने एवं बंद होने के समय की भी सूचना प्रदर्शित नही की गई होती है । सूचना
का सही सम्प्रेषण का यदि यह विभाग ख्याल रखे तो शायद कुछ प्रतिशत समस्याएँ हल हो सकती
है । ऐसा नही है कि खराब व्यवहार एवं सूचना के प्रदर्शन की समस्या सिर्फ कर्मचारी राज्य
बीमा निगम के कार्यालयों में ही है । ऐसी समस्या तो अधिकांश सरकारी कार्यालयों में
है या हर उन कार्यालय में है जिनका संबंध गरीब तबके के लोगों से पड़ता है । चाहे वो
सरकारी हो या गैर सरकारी ।
इन समस्याओं के अलावा बहुत सारी कही- अनकही बातें हैं जिनसे लोगों
का रोज सामना होता है । अब समस्याएँ हैं तो उनका समाधान किया जा सकता है परंतु यह निर्णय
कि निगम की सुविधाओं के लिए किए जाने वाले अंशदान को स्वैच्छिक किया जाएगा , ठीक नही है । जैसे ही अंशदान को स्वैच्छिक किया जाएगा , मजदूर भले ही इन योजनाओं को लेने की रुचि दिखाये मालिक पक्ष इस बात के लिए
असहमति व्यक्त करेगा तथा अंशदान करना ना पड़े इसके लिए सैकड़ों बहाने कानूनी तौर पर निकाल
लेगा । व्यवसायी हमेशा अपने हित की बात ही सोचेगा । पर बेचार मजदूर तो कहीं का नही
रह जाएगा । एक बार अंशदान स्वैच्छिक होते ही निगम की अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी । जिसका
फल यह होगा कि जो भी सुविधा निगम देती है , वो सुविधाएं देने
में अड़चनें आएंगी । इसका दूरगामी प्रभाव यह होगा कि कालांतर में निगम एवं भविष्यनिधि
संगठन को बंद करने की नौबत आ सकती है । कुछ कार्मिक एवं अधिकारी इस बात को महसूस करने
लगे हैं कि निगम का भविष्य खतरे में है।
परिवर्तन तो संसार का नियम है । स्थायित्व तो किसी में भी नही है , ना चर में ना चराचर में । लेकिन इतने वर्षों से स्थापित एक सेवा बंद होने
से कितने लोगों पर इसका कुपराभाव पड़ेगा यह तो समय ही बताएगा , पर यह तो तय है कि मजदूर ही हर हाल में मारा जाएगा ।
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