कहा जाता है कि भारत की
धरती मौसम की मेहरबानी पर टिकी हुई है । मौसम चाहे तो फसल लहलहाए यदि ना चाहे तो
लहलहाती फसल भी चंद मिनटों में धूल में मिल जाये । कभी ओला तो कभी और कुछ कारण ।
हर हाल में इसका खामियाजा किसान को ही भुगतना पड़ता है । भारत में किसान की स्थिति गरीबी
रेखा से भी बहुत नीचे है , शहरी समाज में भी उन्हे कुछ खास
अच्छे दर्जे में नही रखा जाता है । भारत की आजादी के इतने वर्षों के बाद भी किसी
भी सरकार ने शायद ऐसा कोई प्रयास नही किया होगा कि किसानों की स्थिति में सुधार हो
सके । कुछ पुस्तकों में मैंने किसान क्रेडिट कार्ड , फसल
बीमा योजना , पशुधन बीमा योजना इत्यादि कुछ योजनाओं के
विज्ञापन अवश्य देखा पर गाँव में रहते हुए इस प्रकार की योजनाओं का ना ही तो कोई
व्यापक प्रचार देखा , ना ही किसी प्रकार का ऐसा माध्यम मिल
पाया जो इन योजनाओ के बारे में लोगों को बताए । ऐसे में इन योजानाओं में सिर्फ उन
लोगों का ही सामावेश हो पाता है जो रसूखदार हैं या फिर स्वयं कहीं इन योजनाओं के
परिचालन से जुड़े हुए हैं । साल दर साल ऐसा ही चलता ही रहता है । सुबह से शाम किसान
खेतों में लगा रहता है । ऐसे किसान जिनका खेती की आय के अतिरिक्त आय का अन्य कोई
साधन नहीं है , वो फसल की बुवाई के सीजन में खेती करने के
लिए उधार लेकर खेत तैयार करते हैं , बीज खरीदते है एवं बुवाई
करते हैं । उधार भी इस आशा से लेते है कि फसल
की पैदावार होते ही इसकी बिक्री से मिले धन से उधार चुका कर अपनी जिंदगी
आराम से गुजारेगा । पर हा री किस्मत , मौसम के एक ही थपेड़े
उसकी समस्त आशा पर पानी फेर देती है । बर्बादी एवं कर्ज का बोझ उसे मानसिक रूप से
तोड़ देती है । अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को अपनी समस्याओं से निपटने का बस एक ही
रास्ता नजर आता है , मौत या आत्महत्या का । ऐसी परिस्थिति
में ना तो अपने बारे में सोच पाता है ना ही तो अपने परिवार के बारे में , और बस मौत को गले लगा लेता है । कहते हैं कि जब आप तकलीफ में होते है तो
सहारा देने और आँसू पोछने वाले कम ही मिलते है । मौत का तमाशा बनाने वाले कई लोग
खड़े हो जाते हैं,चाहे राजनेता हो या फिर कोई और । मातमपुर्सी
एवं माहौल को और गमगीन बनाने के लिए कई लोग चले आते हैं , पर
इनमे से कोई भी ऐसा नहीं होता है जो किसी प्रकार की आर्थिक मदद करे या फिर कोई ऐसी
व्यवस्था करे कि कम से कम एक परिवार को ही तकनीकी एवं अन्य सुविधा से लैश कर दे कि
भविष्य में उसे किसी प्रकार की परेशानी ना हो । पर यहां तो सब अपनी रोटी सेंकने
में लगे हुए हैं । किसे फिकर है किसी के मरने या जीने के ।
आलोचनाओं का दौर तो चलता
ही रहेगा । आलोचना का सुख ऐसा सुख है जो अमृत पान में भी नहीं मिल पाता है । यह
दौर तो चलता ही रहेगा । अपने गाँव के प्रवास के दौरान मैंने इन समस्याओं के मूल
कारण को देखा है उनमे से कुछ का वर्णन करने का प्रयास कर रहा हूँ जो निमन्वत है ।
मनुष्य जन्म के साथ ही शिक्षा अर्जन की दिशा में बढ़ता है वह चाहे घर से हो , समाज से हो या स्कूल कालेज से हो । आजीवन शिक्षा अर्जन का दौर प्रत्यक्ष
या अप्रत्यक्ष रूप से चलता ही रहता है । जहां भी किसान रहता है उन अंचलों में यदि
भ्रमण किया जाये तो देखा जाएगा कि अधिकांश क्षेत्र में स्कूली शिक्षा का कोई साधन
ही नहीं है । जहां है वहाँ बेसिक सुविधाओं का अभाव है । अब ऐसे में जब शिक्षा ही नहीं
होगी तो आगे का ज्ञान कहाँ से मिलेगा । ज्ञान ही मनुष्य के कर्मों की रीढ़ होती है
। ज्ञान के अभाव में किसान की रीढ़ पहले ही तोड़ दी जाती है । ज्ञान का अभाव तकनीकी
सीखने के क्षमता एवं आत्मविश्वास पैदा होने नहीं देगा । उसके पतन की शुरुवात यहीं
से ही हो जाती है ।
यदि कभी सौभाग्य से पैदावार अच्छी हो जाये तो किसान के लिए आफतों
का नया दौर चल पड़ता है । कहने के लिए तो सरकारी मशीनरी उनके अनाज को खरीदने का
दावा करती है लेकिन धरातल के स्तर पर देखा जाए तो पता लगता है कि सरकारी मशीनरी
उन्हे खरीदने के प्रति जो ढुलमुल रवैया अपनात है वह किसी से भी छुपा नहीं है । कभी
कम कीमत तो कभी गुणवत्ता में कमी , ऐसे कई मुद्दे है
जो किसान को सही लागत नहीं दिला पाता है । मंडी और मंदी की मार तो कभी कभी ऐसी पद
जाती है कि मंडी में पड़े पड़े अनाज वर्षात या अन्य आपदा से नष्ट होने लगता है । अंततः यहां भी किसान
ही नुकसान में रहता है । अन्न भंडारण , उसके खरीद एवं वितरण
के लिए सरकारी मशीनरी को ज़िम्मेदारी दी गई है परंतु इतने अधिक नियम कानून एवं
अड़चनें किसी के भी हित में शायद ही लाभकारी होता हो । इस व्यवस्था में सुधार की
ज़िम्मेदारी कौन अपने जिम्मे लेगा , कौन सुधार करेगा यह एक
यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर भी शायद कोई यक्ष ही दे पाए ।
देश चलाने वालो के जिम्मे इसके प्रत्येक निवासी के पालन की भी
ज़िम्मेदारी होती है । देश के हर क्षेत्र में नई तकनीकि एवं नए सुधार लाये गए । विकास
के लिए नए नए आयाम लिखे गए पर जब कृषि क्षेत्र को देखता हूँ तो लगता है कि हम आज
भी इस क्षेत्र में तकनीकि के विकास एवं प्रयोग के प्रति उदासीन बने हुए है । हालांकि
योजनाओं में कागजी स्तर पर कुछ दिखता है पर जमीनी स्तर पर सब कुछ शून्य है ।हाँ एक
दिशा में अवश्य प्रगति दिखाई देती है वह है कीटनाशकों का प्रयोग एवं रासायनिक खाद के
विक्रय एवं प्रयोग को कई स्थानों पर सरकारी तंत्र द्वारा संरक्षण।इस संरक्षण से किसको
विशेष लाभ मिलता है यह तो प्रभु ही जाने ।
यदि समस्त
समस्याओं के मूल में जाकर हर कारण की विवेचना करें तो और भी कई कारण उभर कर सामने आएंगे
। समस्या तो अनगिनत हो सकती है लेकिन उन समस्याओं पर समुचित विचार करके उनके निकारण
के कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए तो हम किसान यूं ही जाते रहेंगे दुनिया को छोड़ कर , और हमारी रुखसत पर लोग हमारी चिताओं पर रोटियाँ सेंकते रहेंगे । ना कोई मसीहा
ना कोई तारणहार आयेगा हमें बचाने ।
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