रविवार, 20 सितंबर 2015

आध्यात्मिक एवं आधुनिक विज्ञान : एक तुलनात्मक विचार

बचपन से पुराणों एवं आध्यात्मिक पुस्तकों की कहानिया सुनता आया हूँ । उन कहानियों में से कुछ तो ऐसी कहानिया होती थी जिनकी सत्यता पर सहसा विश्वास ही नाही होता था । फिर यह मानकर कि यह  प्रभुलीला है और प्रभुलीला में हर असंभव कार्य भी संभव हो जाता है । इन विषयों पर ना तो कभी किसी से कोई चर्चा किया जाता है, ना ही तो कभी किसी प्रकार का बहस । बहस करना धर्म से च्युत होना माना जा सकता है । समय के पंख उड़ता रहा और बचपन से जवानी आती गई । मानव मन एकमात्र ऐसा मन है जो सुनी सुनाई बातों को मानने से पहले उन्हे तर्कों की कसौटी पर जरूर आजमाता है । अविस्यमरणीय बातों को सहज ही स्वीकार करना नाही चाहता है । ऐसी घटनाओं को या तो चमत्कार या फिर अलौकिक मानकर न चाहते हुए भी विश्वास किया जाता है । मुझे पंजाब की एक घटना याद है, उन दिनों मैं चंडीगढ़ में तैनात था । वहाँ मेरे मुलाक़ात एक वृद्ध फौजी से हुई । उन्होने आजादी के पूर्व का अपना अनुभव बताया जब उनके गाँव के आकाश से होकर पहली बार हवाई जहाज गुजरा था । जहाज के आवाज से गाँव के सारे लोग अपने घरों से बाहर आ गए, और उसे लोहे की चील कहकर संबोधित करते रहे । पूरा गाँव हफ्तों दहशत में था कि पता नहीं ये लोहे की चील क्यों आई  है । सही बात है जिन चीजों के बारे में हमें पूर्वानुमान या ज्ञान नहीं होता है, उन्हे देखकर आशंकित और भयग्रस्त हो जाना स्वाभाविक ही है । ऐसे ही आध्यात्मिक काहनियों के बारे में कहा जाता है । कुछ नास्तिक लोग इन घटनाओं को केवलमतर कहानी मानकर विश्वास ना करते हों पर कई सारे तथ्य ऐसे हैं जिनकी तुलना की जाए तो यह प्रतीत होता है कि हमारे पूर्वजों का अध्यात्म एवं विज्ञान आज के विज्ञान से सहसत्रों कोस आगे था । उस जमाने में विज्ञान को अध्यात्म से इस कार्न से जोड़ा गया होगा ताकि लोग इसका कड़ाई से पालन एवं अनुकरण करें । उनमें से कुछ वैज्ञानिक तटों का विवरण नीचे के कुछ पंक्तियों में करने का प्रयास किया जा रहा है ।
      सर्वप्रथम उल्लेख आता है पुष्पक विमान का । कहा जाता है कि देवताओं के पास पुष्पक विमान था जिसपर सवारी कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक देवता भ्रमण किया करते थे । आधुनिक विज्ञान ने जबतक विमान का आविस्कार नहीं कर लिया तबतक इस कथा ही माना जाता रहा होगा परंतु जिस वैज्ञानिक ने इस जहाज की परिकल्पना की होगी उसे कहीं ना कहीं इस टाठी पर विश्वास रहा होगा कि पुष्पक विमान का स्वरूप अवश्य रहा होगा । बस सूके रूप को पुनः बनाने की आवश्यकता महसूस किया ही होगा ।

      कुछ और घटनाओं की बात करें तो पाया जाता है कि शिवजी से युद्ध करते हुए गणेश का सिर धड़ से अलग हो गया था । इसी प्रकार शिव जी के श्वसुर थे जिनके सिर को शिवगणों ने धड़ से अलग कर दिया था । दोनों ही घटनाओं में सिर का प्रत्यारोपन किया गया था । गणेश के सिर पर हाथी के शावक का तो शिवजी के श्वसुर के सिर पर बकरे के सिर का । इस अंग प्रत्यारोपण की घटना को लोग भले ही ना मानें पर आधुनिक विज्ञान ने मानव अंग प्रत्यारोपन के साथ ही अब सिर प्रत्यारोपण का प्रयास भी प्रारम्भ किया है ।

      माँ भगवती दुर्गा के साथ दानवों के युद्ध में जिक्र आता है रक्त बीज का । रक्तबीज की जितनी रक्त की बूंदें धरती पर गिरती उतने ही रक्तबीज पुनः जीवीत होकर खड़े होकर लड़ने लग जाते थे । इस घटना को यदि क्लोनिंग पद्धति का एक विराट स्वरूप मान सकते हैं । आज के समय में क्लोनिंग का जो स्वरूप है उसे उस काल के क्लोनिंग का एक छोटा सा रूप ही माना जा सकता है । इस घटना में कुछ रोबोटिक्स को भी समाहित किया जा सकता है । आज के समय में कुछ स्मार्ट रोबोट बनाए जा रहे हैं जो मनुष्यों की तरह से हर काम करते हैं ।

      भगवान श्रीराम के बनवास का समय पूरा होते ही उन्होने अयोध्या में बैठे अपनी माता को संदेश भेजा कि माँ मैं आ रहा हूँ । उनके इस सम्प्रेषण को माँ ने सुना भी । आधुनिक विज्ञान ने सूचना सम्प्रेषण के कई आविस्कार किए परंतु भगवान राम द्वारा संप्रेषित सूचना के माध्यम के विषय मे सोचें तो पता लगता है कि उसी तकनीकी का आज एक सूक्ष्म रूप मोबाइल और टेलीविज़न है ।

      भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय की ऐतिहासिक घटना का भी विवरण जिक्र करने लायक है । जब देवकी के गर्भ में सातवाँ बालक पल रहा था । योगमाया का आवाहन कर उस गर्भस्थ शिशु को माया से रोहिणी के गर्भ में प्रत्यारोपित कर दिया गया । इस प्रक्रिया के दौरान चाहे जो कुछ भी कहानी रही हो पर वैज्ञानिक तथ्य तो यही है कि एक गर्भ से दूसरे गर्भ में गर्भस्थ शिशु का प्रत्यारोपन किया गया । आधुनिक विघयान ने बहुत परिश्रम से गर्भ प्रत्यारोपण की प्रक्रिया का पुनः आविष्कार किया और निःसंतान दंपत्तियों एवं संतान सुख देने का प्रयास प्रारम्भ किया है ।

      भगवान कृष्ण के बचपन की घटना याद आती है । कालिया नामक नाग ने यामिना में अपना घर बना लिया था । उसके प्रभाव से यमुना के जल में विश व्याप्त हो गया था । कृष्ण ने बालरूप में ही कालिया का दमन किया और यमुना को विषमुख्त किया । आज की यमुना को यदि देखें तो कृष्ण के काल की वह घटना पुनरावृति करती हुई प्रतीत होती है । आज की यमुना सह समस्त नदियां प्रदूषण से इस कदर त्रस्त हैं कि इनका जल विषाक्त हो गया है । मुझे तो गीता में भगवान श्रीकृष्ण की बात याद आती है जिसमें उन्होने कहा था कि, “यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति........................................” अर्थात धर्म की हानि होने पर मैं पुनः अवतार लूँगा । अब तो उस प्रभु की आने का इंतजार है जो इस विभीषिका से यमुना सहित समस्त नदियों के जल को पुनः पवित्र करे ।  
  

      ऐसी कई घटनाएँ हैं जिनकी तुलना यदि आधुनिक विज्ञान से वैदिक ज्ञान के साथ किया जाए तो हमें ज्ञात होगा कि आज के समय में वेदों एवं पुराणों की घटना एवं कहानियों को मात्र कथा मानकर ही ना चलें अपितु इसपर विचार करें एवं ऐसी खोजों को पुनर्जीवन देने का प्रयास करें जिनका वर्णन इन पुस्तकों आता है , तथा इस प्रक्रिया से मानवता को नवजीवन की राह पर ले जाएँ । 

गली-कूचा : सरकारी आंकड़ों में सिमटती हिन्दी

गली-कूचा : सरकारी आंकड़ों में सिमटती हिन्दी: आए दिन हिन्दी के प्रचार प्रसार के संबंध में केंद्र सरकार के सरकारी कार्यालयों में कई प्रकार के प्रयास किए जाते हैं । हिन्दी का प्रयोग बढ़े ...

सरकारी आंकड़ों में सिमटती हिन्दी

आए दिन हिन्दी के प्रचार प्रसार के संबंध में केंद्र सरकार के सरकारी कार्यालयों में कई प्रकार के प्रयास किए जाते हैं । हिन्दी का प्रयोग बढ़े इसके लिए भी कई प्रकार के परितोषिकों का भी प्राविधान किया गया है फिर भी देखा जाए तो सरकारी आंकड़ों में जिस तरह से हिन्दी के प्रयोग में होने वाली वृद्धि को दर्शाया जाता है, यदि धरातल पर देखें तो ये आंकड़ें सर्वथा असत्य प्रामाणित हो जाएँगे । हिन्दी का प्रयोग कम होने एवं इतने प्रोत्साहनों के बावजूद हिन्दी का उत्तरोत्तर विकास ना होने के पीछे क्या कार्य हो सकता है इस संबंध में कुछ छोटे कार्यालयों में मैंने स्थिति का आंकलन का प्रयास किया । इन आंकलनों में से कुछ विंदु निम्नलिखित है :-

 1. सरल शब्दों के प्रयोग का अभाव :- भारत के सरकारी कार्यालयों में जब हिंदीकरण का शुरुवात किया गया उस समय कई विद्वानों ने अपनी विद्वता का परिचय देते हुए कई सारे क्लिष्ट एवं कठिन शब्दों का आविस्कार किया । ये क्लिष्ट शब्द उन लोगों को तो आसानी से समझ आ जान स्वाभाविक है जो हिन्दी भाषी हैं या हिन्दी माध्यम से शिक्षा अर्हित किए हुए हों परंतु हिंदीतर भाषाई समुदाय के लोग चाहे वो गुजरात–महाराष्ट्र के हों या केरल–बंगाल के । अपनी मातृभाषा से इतर कोई अन्य भाषा सीखकर प्रयोग में लाना हो तो अधिकांश लोगों को असहजता का अनुभव होगा । कुछ प्रयास तो कर सकते हैं परंतु ऐसे क्लिष्ट शब्द आसान प्रयोग में बाधक हो जाते हैं । मैंने कई सहकर्मियों से इस संबंध में बात किया । सबका यही जवाब मिला कि हिन्दी के कठिन शब्दों की हिन्दी ठीक से समझ नही आती अतः बार बार के पूछने के झंझट से बचने के लिए हमें अँग्रेजी का प्रयोग ही आसान लगता है । अब कार्मिकों की इस प्रकार की असुविधा के निवारण के लिए उचित तो यही है कि हिन्दी भाषा में कार्यालयीन प्रयोग के लिए आसान शब्दों के प्रयोग पर बल दिया जाए । एक सभा के दौरान गुजरती भाषा के एक प्रमुख समाचार पत्र के महाप्रबंधक ने मुझसे यह आग्रह कर डाला कि सरल हिन्दी का यदि प्रयोग किया जाए तो इसे अपनाने एवं प्रयोग करने में किसी को असुविधा नही होगी । 

 2. अँग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद से भाषा के वास्तविक स्वरूप का खो जाना :- अक्सर देखा गया है कि अँग्रेजी भाषा में पत्राचार करने के हम इतने आदि हो जाते है कि अँग्रेजी के स्वरूप में ही हिन्दी लिखने का प्रयास करते हैं । कार्यालयीन अँग्रेजी में अधिकांशतः लंबे एवं संयुक्त वाक्यों का प्रयोग किया जाता है । अब यदि इन लंबे एवं संयुक्त शब्दों का अनुवाद करने का प्रयास किया जाए तो कही जाने वाली बात कुछ अन्य रूप में ही प्रकट होती है । अधिकांशतः अनुवादक एवं हिन्दी अधिकारी भी अपनी विद्वता सिद्ध करने के लिए अँग्रेजी के रूप में ही अनुवाद भी प्रस्तुत कर डालते हैं । इस बात का कतई ध्यान नहीं रखा जाता है कि इस पत्र लेखन का उद्देश्य क्या है और इसे किस वर्ग के लोगों को भेजा जाना है । हालांकि अनुदेशों में इस बात का जिक्र अवश्य किया गया है कि अनुवाद करते समय इस बात का प्रयास अवश्य किया जाए कि छोटे छोटे वाक्य लिखे जाए ताकि वाक्यों का अर्थ सही रूप में प्रकट हो सके । परंतु इन अनुदेशों को कई बार अनदेखा कर दिया जाता है । 

 3. कॉपी पेस्ट की परंपरा :- अधिकांश सरकारी कार्यालयों में फाइलों में पीछे के पत्रों को देखकर कुछ शब्दों एवं वाक्यों में मामूली हेरफेर करके नया पत्र बनाया जाता है । इस प्रकार ना तो अधिक श्रम लगता है ना ही समय । कोई भी नया कार्मिक जब कार्यग्रहण करता है और उसे कोई कार्य करना पड़ता है तो अधिक श्रम ना कर वह कॉपी पेस्ट से अपना काम प्रारम्भ करता है । एक बार जिसकी आदत पद जाये तो कहाँ से छूटने वाले है । ऐसे में हम लौटकर हिन्दी में काम करने में क्रमशः असक्षम हो जाते हैं । 

 4. हीनभावना की सोच :- यह देखा गया है कि कुछ अधिकारी एवं कार्मिक इस हीं भावना के शिकार होते हैं कि यदि वो हिन्दी में अपना सरकारी काम करते हैं तो उन्हे अल्पज्ञानी माना जाएगा । अपनी इस हीं भावना को छुपाने के लिए ऐसे अधिकारी एवं कर्मचारी चाहकर भी हिन्दी में काम करने का प्रयास नहीं करते हैं । कई बार तो यह देखा गया है कि हिन्दी भाषाई समुदाय के अधिकारी अपनी विद्वता साबित करने के लिए कार्मिकों द्वारा हिन्दी में प्रस्तुत पत्रों को अमान्य कर देते हैं और उन्हे अँग्रेजी में ही पत्र प्रस्तुत करने के लिए अभिप्रेरित करते हैं ।

 5. पत्रलेखन में अँग्रेजी की शैली का अनुपालन :- यूं तो अंग्रेज़ एवं अँग्रेजी भाषा के प्रकांड विद्वान के अलावा शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो सीधे ही अँग्रेजी भाषा में सोचकर अपनी बातों को लिखकर प्रस्तुत करे । अधिकांशतः लोग पहले अपने मन में अपनी मातृभाषा में सोचते हैं फिर उसका अँग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत कर पत्र या नोट को मूर्त रूप देते हैं । इस सोच में यदि एक सामान्य सा परिवर्तन कर लिया जाए, मातृभाषा में सोचें एवं उसे हिन्दी में प्रस्तुत करें तो यह सफर बिलकुल ही आसान हो जाये । हिन्दी का प्रयोग प्रारम्भ हो जाये । इस प्रकार का प्रयोग मैंने एक कार्यालय में करवाया । इस प्रयोग के बाद अधिकांश कार्मिक इस विधि के कायल हो गए और वो आज भी हिन्दी में ही सरकारी काम किए जा रहे हैं । 

 6. सरकारी कार्यालयों में पत्राचार में “Hindi version will follow” का प्रचलन :- राजभाषा अधिनियम की धारा 3(3) में 14 प्रकार के कागजात का वर्णन है जिन्हे द्विभाषी रूप में ही जारी किया जाना अपेक्षित है । इस नियम का भी एक आसान सा तोड़ सरकारी बाबुओं ने निकाल लिया है । इस मद के अधिकांश पत्र अँग्रेजी में ही जारी किए जाते हैं परंतु अपनी ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाने के लिए हर पत्र के नीचे “Hindi version will follow” लिखकर अपनी ज़िम्मेदारी का इतिश्री मान लिया जाता है । सरकारी बाबू इस मुगालते में रहते है कि चलो हमने इस वाक्य को लिखकर हिन्दी में जारी किए जाने वाले पत्रों का इतिश्री कर दिया है । मेरे पास सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत हिन्दी में लिखे कई पत्रों का जवाब विभिन्न सरकारी कार्यालयों से अँग्रेजी में ही प्राप्त हुआ है जिसके अंत में सुनहरे अक्षरों वाला “Hindi version will follow” वाक्य लिखा मिला किन्तु अबतक किसी भी कार्यालय ने उन पत्रों का हिन्दी रूप नहीं भेजा । यह हिन्दी को छलने की विडंवना नहीं तो और क्या है । 

 7. मिथ्या आंकड़ों की भरमार : हिन्दी में किए जाने वाले पत्राचार एवं कार्य पर नजर रखने के लिए हर विभाग अपने अधीनस्थ कार्यालयों से माह के दौरान किए गए कार्यों का विवरण मँगवाता है । इस विवरण को समेकित कर भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग को भेजा जाता है । चूंकि अधिकांश कार्यालयों में “Hindi version will follow” जैसे पत्रों की भरमार होती है, लिहाजा अधिकांशतः झूठे रिपोर्ट ही बनाए जाते हैं।अधीनस्थ कार्यालय शीर्ष कार्यालयों से सुनना ना पड़े इसके लिए यदि 20 प्रतिशत कार्य किया जाए तो उसे 80 प्रतिशत दिखाने का प्रयास करते हैं । 

 8. कार्यालय के शीर्ष अधिकारियों द्वारा हिन्दी के प्रयोग से संबन्धित संवैधानिक प्राविधानों की अवहेलना :- किसी भी कार्यालय के प्रशासनिक प्रमुख का यह उत्तरदाईतव है कि उसके अधीनस्थ कार्मिक सरकारी काम निर्धारित प्रतिशतता में करें । चूंकि कार्मिक एवं अधिकारी आसान प्रक्रिया एवं अपनी हीन भावना को पोषण देते हुए अँग्रेजी में पत्र प्रस्तुत करते है । अब यह प्रशासनिक प्रधान यदि ऐसे अधिकारी एवं कार्मिक को एक दो बार इस बात के लिए टोक दें तो भविष्य में ऐसे लोग हिन्दी में पत्राचार का प्रयास प्रारम्भ कर सकते हैं , पर ऐसे मामले में प्रशासनिक प्रधान की भी उदासीनता झलकती है । कुछ कार्यालयों में तो लोग यह सोचते हैं कि यह एकमेव हिन्दी विभाग के कार्मिकों का ही दायित्व है हिन्दी में काम करना बाकी किसी का नहीं । अब हिन्दी कार्मिक बिना दाँत का जानवर जिसकी कोई सुनता नही है वह अकेला क्या कर सकता है । जबतक प्रशासनिक प्रधान की रजामंदी ना हो एक व्यक्ति के प्रयास सरकारी कार्यालयों में खास मायने नहीं रखते । उपरोक्त बिन्दुओं के अलावा कई सारे कहे-अनकहे बिन्दु भी हो सकते हैं । यदि थोड़ा सा प्रयास हर व्यक्ति करे तो हिन्दी का प्रयोग मात्र आंकड़ों तक सिमटकर ही नहीं रहेगा अपितु सही रूप में हिन्दी का प्रयोग बढ़ सकता है ।

बुधवार, 2 सितंबर 2015

गौ सेवा को समर्पित एक वायु सैनिक

       हमारे एक पुराने मित्र हैं श्री सुनील कुमार श्रीवास्तव ,हम दोनों माउंट आबू में कुछ दिन एक साथ थे । बड़े ही सरल स्वभाव एवं मिलनसार प्रवृत्ति के व्यक्ति । अच्छे इतने कि कई बार अपने घर में भरा हुआ सिलिंडर चाहे एक भी ना हो पर अगर कोई मित्र उनसे सिलिंडर मांग ले तो अपने घर में लगे हुए सिलिंडर को निकाल कर दे देंगे, कभी यह नही सोचते कि घर का चूल्हा कैसे जलेगा । उनका एक बेटा आर्मी में कैप्टन है , बेटी बैंक में मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं । इतना सब होते हुए भी अहंकार उनके अंदर लेशमात्र भी नहीं था ।  
       काफी अरसे बाद इत्तेफाकन मेरा मुंबई जाना हुआ , हमारी फ्लाइट किसी कारणवश लगभग 10 घंटे एलईटी थी । मैंने उनकी पुत्री , जो कि मुंबई में ही रहती है , उसे फोन किया । बेटी ने बताया कि पापा भी घर आए हुए हैं । एक अरसे बाद उनसे मिलने की बात सोचकर मैं उनसे मिलने चल पड़ा । वर्तमान समय में सुदूर आसाम के किसी स्थान में तैनात हैं । बातों-बातों में उनके वर्तमान कार्यभार के बारे में मैंने पूछा । उन्होने हँसते हुए बताया कि आजकल गौ सेवा में लगा हुआ हूँ । सुनकर मैं बड़ा हैरान हुआ कि उनके जैसे सुधड़ व्यक्ति गौ सेवा में लगा हुआ है । कौतूहल का विषय भी था । मैंने विस्तार से उनके इस नए कार्य में बारे में जानना चाहा ।
 उन्होने बताया कि असम में एक डेरी फार्म है , वायु सेना का जिसके देखरेख की ज़िम्मेदारी उनके विभाग को दी गई है । पिछले काफी महीनों से फार्म घाटे में चल रही है । बस ऐसे ही चर्चा चली कि फार्म को अब बंद कर देना चाहिए क्योंकि उससे लाभ की बजाय नुकसान ही अधिक होता है । सुनिलजी भी उस वार्ता में शामिल थे । उन्होने आगे बढ़कर कहा कि उस फार्म की देखरेख के ज़िम्मेदारी उन्हे सौंप दी जाये । लोगों को उनके इस कथन पर बड़ा आश्चर्य हुआ । कहाँ लोग ऐसे कार्य को हाथ में लेने से कतराते हैं, और कहाँ ये हैं कि “आ बैल मुझे मार” कह रहे हैं । खैर उनकी बात को मानकर उन्हे डेयरी का मैनेजर बना दिया गया । इसके पहले दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होने वायुसेना के स्कूल में भी प्रबन्धक का पद संभाला था और उसे बखूबी निभाया भी था । मैनेजर बनते ही उन्होने फार्म का दौरा किया । कई गायें थीं, सबको एक नाम दिया गया था । उनके नाम से उनका सम्बोधन किया जाता था । पहुँचते ही उन्होने समस्त गायों को पुचकारा , उनसे बातें की और फिर लग गए अपना काम करने में ।

       अगले दिन सुबह के पाँच बजे पहुँच गए फार्म और फिर पहला काम शुरू किया फार्म की सफाई का । पानी का पाइप अपने हाथों में लिया , वहाँ काम करने वाले कर्मचारी को भी साथ लिया और पूरे फार्म को साफ किया । सफाई के बाद , गायों को खिलना, फिर दूध निकालने की प्रक्रिया । सबकुछ पूरा करने के बाद फिर निकल पड़े अन्य व्यवस्थाओं को पूरा करने । दोपहर फिर पहुँच गए फार्म , गायों को देखने । वहाँ काम करने वाले कामगार हैरान हो गए उन्हे देखकर । कहने लगे, साहब इस समय कहाँ घूम रहे हैं । इस समय तो अधिकतर लोग आराम करते हैं । उन्होने बताया कि मैं गौवों को नहलाने के लिए आया हूँ । गर्मी के दिन हैं , उन्हे नहलाना जरूरी है । और फिर पाइप लेकर सबको नहलाने का काम शुरू कर दिये । रगड़-रगड़ कर समस्त गायों को नहलाया, उनके रहने के स्थान की सफाई कारवाई और फिर अपने कमरे में वापस चल दिये । शाम को फिर दूध दूहने के समय पहुँच गए। उनके मन में एक बात और आई । उन्होने उनको कुछ और खिलाने की बात सोची । अलग से कुछ करने के लिए बजट की मंजूरी करवाना एक टेढ़ी खीर होते है, वह भी तब जब आपकी परियोजना घाटे का सौदा साबित हो रही हो । इसके लिए उन्होने के हल निकाला । उन्हे याद आया कि मेस में पका हुआ काफी भोजन बच जाता है जिसे अगले दिन सुबह फेंक दिया जाता है, क्यों ना उसी भोजन सामाग्री का सदुपयोग किया जाए। वो मेस गए और वहाँ के इंचार्ज से बात की । इंचार्ज इस बात के लिए तैयार हो गए कि सुबह के समय बचा हुआ भोजन वो ले जा सकते हैं । अब समस्या थी मेस से फार्म तक उस सामाग्री को ले जाना । कामगार की संख्या इतनी कम थी कि उनसे यह काम करवाना संभव नहीं था अतः खुद ही ले जाने की सोचे । नए नए आए थे आवागमन का कोई साधन नहीं था उनके पास । माउंट आबू प्रवास के दौरान एक मोटर साइकिल दुर्घटना में उनके पैर के घुटने में चोट आ गई थी जिसके कारण ठीक से चलने में उन्हे असुविधा होती थी । ऐसी परिस्थित में उन्होने इस काम के लिए एक साइकिल खरीदा । यह जानते हुए भी कि साइकिल चलाना उनके घुटने के लिए घटक हो सकता है, उन्होने यह रिस्क ले ही लिया ।

       सुबह तड़के पाँच बजे साइकिल चलते हुए मेस पहुंचे , वहाँ से बचे हुए भोजन को इकठ्ठा करवाया और उसे लेकर फार्म पहुँच गए । फार्म पहुँच कर एक एक गाय को अपने हाथों से रोटी खिलाया, उन्हे  पुचकारा और फिर दिनचर्या में लग गए । धीरे धीरे उनकी प्रतिदिन की यही दिनचर्या हो गई । चार से पाँच किलोमीटर साइकिल चलना, गायों के लिए भोजन ले जाना , उन्हे स्नान कराना , साफ सफाई करवाना । पहले तो कामगार उनके इस नियमितता से दुखी भी हुए पर बाद में उनके लगन को देख कर उनलोगों ने भी उनका साथ देना शुरू कर दिया । दो महीने का अंदर दुग्ध उत्पादन आशा से अधिक बढ़ गया । देखते देखते जो फार्म घाटे में चल रहा था अब उसे लाभ होने लगा । गायों को भी इनसे इतना लगाव हो गया कि उन्हे देखते ही उनकी बाँछे खिल जाती थीं । मानव-पशु की यह मित्रता प्रगाढ़ होती चली गई । उनका लगन कहें या सेवा का प्रताप लगातार साइकिल की सवारी से उनके घुटने की तकलीफ भी खत्म हो गई और अब वो सामान्य हो गए थे ।
      
       मैंने उनके बच्चों से बात किया , पूछा कि पापा इस तरह गौशाला में काम करते हैं , आपलोगों को झेंप नाही आती है । उन बच्चों ने बड़े गर्व के साथ कहा कि अंकल हमारे पिताजी जवान और किसान दोनों के मिश्रित रूप में हैं , यह तो हमारे लिए गर्व की बात है कि वो आज भी अपनी जड़ों से जुड़ाव रखते हैं । मुझे लाल बहादुर शास्त्री जी का जय जवान- जय किसान का नारा सत्य होता हुआ प्रतीत हुआ । धन्य हैं ऐसे सपूत और उनकी सन्तानें ।