बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

अखबार के पन्नों से

अखबारों के कार्टूनों के देखने का मुझे बचपन से ही शौक रहा है । आज सुबह का Times of India के सूरत संस्करण के कुछ पृष्ठों को पलट रहा था कि मेरे नजर एक खास कार्टून पर पड़ी । कार्टून में एक कार्यालय के बाबुओं को टेढ़ा होकर चलते हुए दिखाय गया है । इन टेढ़े बाबुओं के इस टेढ़ेपन के लिए अंडर द टेबल की आदत को जिम्मेदार बताया गया है । मुझे इस कार्टून को देखकर हंसी आ गई । एक नजर में तो यह कार्टून आजकल टी वी पर चल रहे किसी यात्रा कंपनी के विज्ञापन का नकल लगा । उस विज्ञापन में भी दिखाया गया है कि किसी ऑफिस के लोग घुटनों पर आधा झुक कर चल रहे हैं । इसका कारण उनकी प्रकृति को बताया गया है । मानुषी की ये प्रकृति सरकारी कार्यालयों के बाबुओं पर कुछ ज्यादा ही हावी  दिखाई देती है । इसका परिणाम यह देखने में आता है कि सरकारी बाबू की टेबल पर पड़ी हुई फाइल में आवेदक चाहे मरणासन्न स्थिति में रहकर आपात मदद की आकांक्षा लिए हुए आवेदन भले ही दिया हो पर साहब उसे अपने हिसाब से ही देखेंगे , अपने मर्जी से ही पास करेंगे । और फिर बाबू तो बस बाबू ही हैं , उन्हे कौन प्रश्न कर सकता है । हालांकी भारत सरकार ने आमजन के RTI का अधिकार दिया है जिससे आमजन अपनी समस्या के संबंध में प्रश्न कर सकता है लेकिन बाबू तो बाबू ही ठहरे । ऐसा गोल मोल जवाब देंगे कि आवडक भी झख मार्कर यह भूल जाएगा कि उसने पूछा क्या था । आजकल एक नया फार्मूला और चल पड़ा है जिसमें बाबूजी यह लिखकर अपने अधिकार का इतिश्री कर लेते हैं कि मांगी गई जानकारी इस विभाग में उपलब्ध नही है । अब कर लो जो करना है । नियमतः आप यह नाही पूछ सकते कि जानकारी नाही है तो क्यों नही  है । किसी प्रदेश के लोकपाल बहुत जागरूक होकर छापे तो मार रहे है पर यह तो सागर के बूंद के बराबर है ।
धत्त तेरे की मैं ये क्या लेकर बैठ गया । बाबुओं की महिमा का गुणगान कतरे हुए किसी ने देख लिया तो फिर ...... चलिये फिर मिलते हैं । 

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

फुटपाथिया प्रेम



वसंत का महीना पुरातन भारतीय संस्कृति में प्रेम के महीने के रूप में जाना जाता था । वसंतोस्तव मनाने की परंपरा का जिक्र भिन्न भिन्न   साहित्य में भिन्न रूपो में वर्णित है । प्रेम की परिकल्पना एवं परिभाषा का वर्णन कवि , साहित्यकार , पत्रकार , वैज्ञानिक ,सिपहसालार सबने अपने अनुभव एवं अनुमान के अनुसार किया है । सबकी अपनी एक विधा है । वक्त बदलता गया , साथ ही प्रेम के मायने भी उसे प्रकार बदलते रहे । मुगल आएतो उनके काल में प्रेम का प्रतीक बनकर उभरा ताजमहल जिसे अधिकांश जनसंख्या ने चूमा एवं सराहा । वक्त थोड़ा और बदला । अंग्रेज़ का पदार्पण हुआ । अंग्रेजों ने अपने चलन के अनुसार प्रेम की परिकल्पना एवं चलन बनाया । देश को उनके चंगुल से मुक्त करने के लिए लोगों में देश प्रेम नामक एक अलग प्रेम की परिपाटी देखने को मिली जिसमें प्रेम का रुझान किसी जीवंत शरीर के प्रति ना होकर मातृभूमी के लिए ज़्यादातर रही । समय के साथ हमारा देश आजाद हुआ । देश प्रेम का जज्बा लोगों में स्वदेशी के प्रति रुझान एवं जुड़ाव बढ़ाता रहा । आजादी अपने साथ कई फटकार की आजादी लेकर आई । समय थोड़ा और आगे बढ़ा  देश प्रेम की भावना धीरे धीरे ठंडी पड़ने लगी । इसी के साथ पाश्चात्य शैली के प्रति हमारा रुझान बढ़ने लगा । पाश्चात्य संस्कृति के प्रति हमारा रुझान कुछ यूं बढ़ा कि हमे अपने देश की भाषा , रहन सहन , वेश भूषा सबकुछ पिछड़ा एवं दक़ियानूसी लगने लगा । अब तो स्थिति ऐसी हो गई कि पाश्चात्य वेषभूषा में भिखारी भी हमे संस्कार वाला लगने लगा । यहीं से हमारे यहा प्रेम की परिपाटी एवं परिभाषा भी बदलने लगी । भारतीय फिल्मों में अबतक नायक नायिका सिर्फ पेड़ों के इर्द गिर्द घूमकर एक दूसरे से प्रेम का इजहार करते नजर आते थे , गलियों में ना घूमकर प्रेम की अभिव्यक्ति घर तक सीमित रहती थी । धीरे धीरे बाजारवाद का प्रादुर्भाव हुवा । हम जो अबतक संस्कारों में लिप्त बैठे थे , समस्त वंधनों को तोड़कर स्वछंद हो उठे । इस स्वछंदता के आलाम में पेड़ों के चरो तरफ फिरने वाले प्रेमी अब पार्कों के हर कोने में गले में गले डाले अश्लील हरकते करते हुवे नजर आने लगे । एक बार हम किसी मशहूर पार्क में अपने दो छोटे बच्चों के साथ घूमने गए । वहाँ पहुँचकर आलम कुछ यूं दिखा कि हमारे साथ-साथ पेड़ पौधे भी शर्माने लगे । उस दिन से हमने पार्को में जाने से तौबा कर लिया ।
बाजारवाद ने इन सब माहौलों का काफी फायदा उठाया । इस क्रम में प्रेम की अभिव्यक्ति पार्कों से उठकर गली-कूची , चौबारों से होते हुए स्कूल कालेजों तक जा पहुंची । और फिर सब खुला खुला हो गया । और फिर धमाक होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई। हमने आज से दस साल पहले किसी वेलेंटाइन डे के खास प्रदर्शनों के बारे में नहीं सुना था । पर अब तो बहार है । वेलेंटाइन दे के नाम पर एक तरफ छद्म प्रेम के प्रदर्शन की होड है तो दूसरी ओर उस उन्मुक्त प्रदर्शन की रोक के लिए प्रयास। कहा जाता है कि जब दो बिल्लियाँ लड़ती हैं तो फायदा बंदर ले जाता है । प्रेम के इस परंपरा का निर्वहन करने वाले नित नए संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं तो विरोध करने वाले नित नए संकल्प । इसमे बाजार को उपभोक्ता , न्यूज चैनलो  को मुद्दा और भी किसी को कुछ । सब अपने में लगे हुए है ।

    बाजार में उपलब्ध इस प्रदर्शन के संसाधनों के समान यह प्रेम भी महज प्रदर्शन की वस्तु बन कर अभिव्यक्ति ना रहकर डिस्पोजेबले वस्तु बनकर रह गई है । कहते है फैशन के युग में गारंटी की आशा ना करें , यही दशा प्रेम के साथ हो गया है । यह प्रेम सड़कछाप प्रेम बनकर रह गया है । 

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

क्यों करें हम हिंदी में सरकारी काम ?



      निठल्ला बैठा था | खाली दिमाग शैतान का घर होता है सब जानते हैं | मेरा दिमाग भी खाली था सो शैतान आ बैठा और दिमाग की हलचल कुछ बातों के तरफ जाने लगी | मैंने सोचा भारत के संविधान में वर्णित राजभाषा के उपबंधों के अनुपालन में भारत सरकार ने केंद्र सरकार के अधीनस्थ समस्त कार्यालयों में हिंदी में सरकारी काम करने के लिए अनुदेश जारी किया है | इसके अलावा हिंदी के प्रचार एवं प्रसार के लिए काफी प्रयास भी जारी है परन्तु देखा गया है कि यह आशातीत सफलता प्राप्त नहीं कर पा रही है | कई ऐसे कारण हैं जिनमें मानवजनित कुछ अड़चनों की तरफ गया , उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :-    
1. मुझे हिंदी ठीक से नहीं आती है :      इंसान पैदा होने के साथ ही दो भाषाएँ सीखना शुरू कर देता है | पहली है वह भाषा जो उसके माँ द्वारा अथवा हम कहें कि घर में बोली जाने वाली भाषा यानी कि 'मातृ भाषा' तथा दूसरी वह भाषा जो उसके घर के  बाहर अधिकांश लोगों द्वारा बोली जाती है जो उसके क्षेत्र की भाषा अथवा राज्य की भाषा हो सकती है | बाद में चलकर इंसान देश काल एवं प्रकृति के अनुसार अन्य भाषाएँ सीखता है एवं प्रयोग में लाता है | भारतवर्ष में सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त 22 भारतीय भाषाएँ है , इसके अलावा वर्ग के अनुसार अन्य कई भाषाएँ हैं | भारत ही नहीं विश्व भर के हर देश में मान्य भाषाओं के अलावा अलग अलग स्थानों पर लोगों की अपनी अलग भाषा हो सकती है | अमूमन लोग किसी अन्य भाषा में कुछ कहने अथवा व्यक्त करने से पहले मातृ भाषा में सोचते हैं , उनका उस कहे जाने वाली भाषा में अनुवाद करते हैं फिर शब्द अथवा वाक्य के रूप में उसे व्यक्त किया जाता है | यह प्रक्रिया मनुष्य का मस्तिष्क इतनी द्रुत गति से करता है कि इसका अनुभव नहीं हो पाता है | अब कुछ लोग इस बात से इत्तेफाक ना रखते हों , वैसे लोगों की संख्या अपेक्षाकृत कम ही है जो अपनी बात को धाराप्रवाह मातृभाषा के मदद के बिना ही अन्य भाषा में अपनी बात व्यक्त कर पाते हैं | सरकारी कार्यालय में काम करने वाले ऐसे लोगों का तबका बहुत ही कम है | अब यदि आपको कोई बात कहनी हो या लिखनी हो तो मेरे विचार से सबसे पहले मातृ भाषा में व्यक्त करना  अधिक आसान लगना चाहिए | अब जब आप अपनी बात अपनी मातृ भाषा में व्यक्त करने में सक्षम हैं तो फिर उसको हिन्दी स्वरुप में व्यक्त करने में ज्यादा आसानी होगी क्योंकि हिंदी में इस बात की पूरी छूट है कि जिन शब्दों का हिंदी अर्थ ना पता हो उन्हें आप अपनी मातृभाषा के शब्दों में देवनागरी में लिख सकते हैं , आपकी बात समझ ली जाएगी | अर्थ का अनर्थ कभी नहीं होगा पर  यदि आप  अंग्रेजी के प्रयोग में शब्दों से चूक गए फिर तो गुड़ गोबर हुआ ही समझिए | मुझे एक घटना याद है जिसमें कार्यालय के दो कर्मचारी थे , उनमें से एक अच्छा कार्यकर्ता था दूसरा एक नंबर का कामचोर | उनके वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट भरने की बारी आयी | जिस अधिकारी को यह रिपोर्ट भरना था वे अंग्रेजी  में थोड़े असहज थे | कार्यकुशल कार्मिक को परिश्रमी लिखना चाहते थे लिहाजा उन्होंने उसके सम्बन्ध में लिखा He works Hardly.| दूसरा कर्मचारी जो कामचोर था और अक्सर कार्यालय से बाहर रहता था उसके बारे में लिखना चाहते थे कि वह हमेशा बाहर ही रहता है पर लिख बैठे He is ourstanding worker. अब बताइये उन्होंने अन्य भाषा में अपनी विद्वता का परिचय देने के लिए एक कर्मठ कार्मिक के गोपनीय रिपोर्ट में कितनी अच्छी टिप्पणी दे डाली | अब ऐसी विद्वता किस काम की जिसके प्रदर्शन से किसी को कष्ट में डाला जाए | ऐसी कई घटनाएं होती है , जब आप किसी छोटी सी शब्द भूल से पूरे वाक्य के सन्देश को स्पष्ट नहीं कर पाते हैं | ऐसे मित्रों से मैं यही कहूँगा कि दिल पे हाथ रख के सोचिये कि आप किस रूप में सहज हैं | बस अहंकार एवं शर्म का त्याग करके एक बार प्रयोग करके तो देखिये , कितना सुकून मिलेगा |                       
2. यह मेरा काम नहीं है : कुछ लोग यह भी कहते हैं कि हिंदी में काम करने के लिए तो सरकार ने हिंदी अनुभाग या राजभाषा शाखा बना रखा है , फिर हम क्यों करें अपना का हिंदी में | ऐसे मित्र सही ही तो कहते हैं , हिंदी अनुभाग तो है ही हिंदी में काम करने के लिए और इस अनुभाग के लोग अपना काम कर भी रहे हैं | काम तो सभी अपना अपना कर ही रहे हैं | भारत के राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमन्त्री एवं संत्री एवं अन्य तबके के सरकारी कर्मचारी सभी अपना काम करते हैं | पर उस काम पर लगने (कार्यग्रहण) के समय सभी एक शपथ लेते हैं | शपथ लेने से पूर्व तक कोई भी अपने पद पर स्थापित नहीं माना जाता है | उस शपथ के कुछ अंशों में यह भी रहता है कि मैं भारत के संविधान में सच्ची निष्ठा रखूंगा एवं इसमें प्रदत्त समस्त नियमों का पालन करूंगा | इस प्रकार के शपथ के बाद ही आप पदासीन होते हैं | अब देखिये आपने शपथ ले लिया कि संविधान के नियमों का पालन करेंगे | संविधान के नियमों में अनुच्छेद 343 से लेकर 351 तक समस्त अनुच्छेद राजभाषा के सम्बन्ध में | इन अनुच्छेदों के प्रकाश में राजभाषा नियम इत्यादि बनाया गया है | अब एक तरफ तो आप शपथ लेकर कहते हैं कि संविधान में प्रदत्त समस्त नियमों का अनुपालन करूंगा दूसरे तरफ कहते हैं कि हिंदी में काम करना मेरी जिम्मेदारी नहीं है | मैं निवेदन करूंगा कि आप संविधान के इन अनुच्छेदों को एक बार अवश्य देख लीजिये | बस जरूरत है अपनी सोच बदलने की |
3. काम करना तो चाहता हूँ पर सहयोग नहीं मिलता : कई मित्र ऐसी बात भी कहते हैं कि मैं काम तो करना हूँ पर तकनीकि एवं अन्य सहायता नहीं मिलती | यह समस्या कई रूप में है | कुछ गौड़ भी है | इनमें पहली समस्या आती है हिंदी टंकण ना आना | इस समस्या के हल के लिए राजभाषा अनुभाग, भारत सरकार ने भारत की 22 भारतीय भाषाओं में काम करने के लिए  कम्प्यूटर  में यूनिकोड  के सक्रीय  करने का अनुदेश दिया है | यह कोई अलग सॉफ्टवेयर नहीं है बल्कि जब आप अपना कम्प्यूटर सक्रीय करते हैं उस समय इसमें लैंग्वेज ऑप्शन में एक बॉक्स टिक करना होता है जिसमें एशियन कंट्रीज की भाषाओं को एक्टिवेट करना होता है | बस इतना सा काम है | विशेष विवरण राजभाषा की साइट पर उपलब्ध है | आप अपने कार्यालय के IT. दल को यूनिकोड सक्रीय करने के लिए कहिये | माइक्रोसॉफ्ट हो या लिनक्स हो , हर ऑपरेटिंग सिस्टम में यह सक्रिय हो जाता है, और इसके लिए कोई अतिरिक्त खर्च करने की भी आवश्यकता नहीं है | इसके अलावा "गूगल बाबा(GOOGLE.com)” भी आपके सहयोग करने के लिए तैयार बैठे हैं | अन्य कार्यो में आप अपने सहकर्मी मित्रों एवं राजभाषा शाखा में मदद ले सकते हैं |
     मुझे लगता है कि इन तीन बातों के बाद हिंदी में काम ना करने का और कोई ठोस बहाना नहीं मिल सकता | बस कुछ कदम आप आगे बढ़ाएं , कारवां मिलता ही जाएगा |


विचार प्रस्तुति  श्री एनएसवीरानी, कार्यालय अधीक्षक , कर्मचारी राज्य बीमा निगम , सूरत 
     




सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

नैनो को रहने दो .........

मनुष्य के शरीर में सबसे कोमल एवं चंचल अंग यदि कोई है तो वो नैन ही हैं.नैन यानि कि आंखें.साहित्य की विधा यदि देखें तो यह मिलता है कि साहित्यकारों ने इसे इतना महिमामींडत किया है तथा इसपर इतनी कविताएं एवं गीत लिख डाला है कि  जितना भी पढें क़म ही लगता है.किसी ने अपने गीतों में नारी को नैनों के माध्यम से परिभाषित किया है जैस कि काले -कजरारे नैनों वाली, किसी रचनाकार ने इसे जादू भरी , तो किसी ने नैनों को सपना और इन सपनोंमेंभी सपना बसा देख डाला तो किसी ने संबोधन का माध्यम बनाकर पता नहीं क्या क्या कह डाला.प्रेम की विरहनी किसी प्रख्यात लेखक की नाइका जाह्नवी ने विरह वेदना से व्याकुल होकर कागा को निमंत्रण दे डाला यहा कहते हुए कि कागा चुन चुन कर खाइयो पर अपने दो नैनो को खाने से इसलिए मना कर देती है कि शायद उसके प्रेमी वापस आएं , उस समय इन बचे हुए नैनों से अपने प्रियताम का दीदार तो कर पाएगी. एक शायर ने तो अतिशयोक्ति की हद कर डाली जब उसने इसे झील मानकर नाइका के झील सी आंखों में डूब मरने की इच्छा व्यक्त कर डाली यह कहते हुए कि झील सी आंखों में तेरे डूब मरना चाहता हूं.अब आप जरा सोचिए कि पांच फुट के शरीर में आंखों का स्थान होता ही कितना है . अब वह झील कैसे हो सकता है तथा उसमें किसी का डब मरना कैसे हो सकता है.पर साहित्य की विधा होती ही कुछ ऐसी है कि  इसमें सबकुछ संभव है , परंतु विज्ञान इन सब तर्कों को एक सिरे से नकार देता है.
     विज्ञान की विधा को माना जाए तो हमारी आंखे सिर की अस्थि में बने दो कोटरों के बीच स्थित है जिनके बीच एक सामंजस्य रहता है.इस सामंजस्य के कारण दो आंख होने के बावजूद किसी वस्तु की छवि हमारे मस्तिष्क पटल पर दो न होकर सिर्फ मूर्त रूप में वास्तविक संख्या के आधार पर बनती है , यानि कि यदि एक तो एक या फिर गिनती में जितने उतने ही बनते हैं.कभी कभी ऐसा हो जाता है कि हमें कोई एक वस्तु दो-दो दिखने लगे.यदि ऐसा हो जाए तो यह चमत्कार नहीं वरना किसी खास रोग का लक्षण समझा जाना चाहिए. हो सकता है कि यह स्थिति दिमाग में किसी अनजाने टयूमर अथवा नेत्र के ही किसी तन्तु में किसी विकार के आ जाने के कारण हो रहा हो.यह स्थिति उन अवस्थाओं में भी आ सकती है जब रक्तचाप (Blood Pressure) असामान्य रूप से बढा हो.ऐसी स्थित में यथा शीघ्र चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए . यदि कोई असामन्य रोग नहीं है तो कुछ सामान्य योग करके इस स्थिति से निजात पााया जा सकता है.मेरे एक मित्र के पिताजी को साथ एकबार ऐसी समस्या हो गई थी . उन्हें हर वस्तु दो दो नजर  आती थी.इसका दुस्परिणाम यह होने लगा कि कुर्सी दो दिखती , यदि बैठना हो तो वो समझ नहीं पाते थे कि कौन सी कुर्सी वास्तविक है , इस स्थिति में दूसरी कुर्सी का चुनाव हो जाता और नतीजा बेचारे  धडाम से जमीन पर गिर पडते थे.देखने वालों के लिए यह हास्यास्पद लगता पर बेचारे परेशान बहुत थे.प्रारंभिक जांच से कुछ विशेष बिमारी का पता न लग सका.समस्या धीरे धीरे महीने भर से अधिक दिनों तक चली.बाद में कुछ सामान्य आसनों के सहारे हफ्ता भर से भी कम समय में उनका यह कष्ट दूर हो गया. 

     हमारे आंखो के बीच में गोल सी काली/भूरी संरचना आंखो की पुतली(cornea´ होती है जिससे होकर किसी वस्तु की छाया प्रकाश विन्दु के रूप में दृष्टिपटल(retina)पर पडता है.इस प्रकार हमें किसी वस्तु के प्रतिविंब का अहसास होता है.हमारी आंखें कुछ हद तक अंडाकार रूप में होती हैं जिसके बीच में तरल पदार्थ भरा रहता है जिसे (vitreous fluid´ के नाम स जाना जाता है.दृष्टि पटल पर पडने वाले हर प्रतिविम्ब का प्रकाश इस तरल पदार्थ से होकर गुजरता है.आंखो के बाहरी सतह को कुछ मांशपेशियां हमेशा जकाड क़र रखती हैं जिसके कारण आंख अपने वस्तविक आकार में बनी रहती है.किसी कारण से इन मांसपेशियों के तनाव के स्तर में बाधा अथवा खोट आ जाने के कारण हमें दृष्टि दोष यानि की देखने में परेशानी हाने लगती है.आकार के आधार पर या तो यह दूर की नजर की कामजोरी होती है या फिर नजदीक की जिसमें अक्षर अथवा वस्तु हमें धुंधली दिखाई देती है.इन स्थितियों के निदान के लिए चश्मे के प्रयोग की सलाह दी जाती है.आजकल विज्ञान की तरक्की के फलस्वरूप लेजर द्वारा शल्यकृया कर इसका निदान किया जा रहा है.

     जैसा कि मेंने पहले कुछ अनुच्छेदोंमें जिक्र किया है कि आंखो को झील के समान माना गया है. यदि हम गौर से देखें तो इसमें थोडी सी सच्चाई भी नजर आती है.जैसे झील में पानी होता है उसी प्रकार से आंखों में भी पानी होता है.समय समय पर संवेदनाओं के वेग अथवा किसी प्रकार के आघात से यह जल आंसू बनकर धारा प्रवाह निकल पडता है.यह नमकीन जल आंख की बाहरी सतह को हमेशा गीलापन प्रदान करता रहता है . यह नमी आंखों को स्वच्छ बनाए रखता है तथा रोगों को दूर रखता है .अधिक मात्रा में निकलने वाले इस जल को नेत्रनली नाक के माध्यम से बाहर निकाल देती है.यह नेत्र नली आंख की बाहरी सतह से लेकर नाक के अंदर तक जाती है . अक्सर देखा गया है कि जब आंसू अधिक निकले हैं तो नाक बहने लगती है . उस समय आंखों से अधिक मात्रा में निकलने वाला जल नेत्रनली के माध्यम से नाक से होकर निकलने लगता है.आंख से अत्यधिक   जल का स्राव यह दर्शाता है कि या तो नेत्रनली में किसी प्रकार का ब्यवधान है या फिर कोई संक्रमण.छोटे बच्चों में बहुदा यह कष्ट रहता है.बच्चों को हम अक्सर सुन्दर दिखें इसके लिए खूब काजल लगाते है.पर अनजाने में इस तथ्य से अनजान होते हैं कि बच्चे की आंख सुंदर दिखने की बजाय यह काजल उसके नेत्र नली को बंद कर देगा जिसके कारण आंख से पानी आना जैसी समस्या शुरू हो जाएगी.यदि यह समस्या अधिक दिनों तक चली तो फिर इसके घातक परिणाम हो सकते हैं.कई बार आंख के अंदर का सफेद हिस्सा लाल हो जाता है.डाक्टरी जुबान में इसे कंजंटीवाइटिस कग जाता है जिसमें लाली के साथ आंख से पानी आना भी जारी रहता है.इस स्थिति में तुरंत किसी चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए क्योंकि यह एक फैलने वाला रोग है जो कि संपर्क द्वारा फैलता है.ऐसे में बार बार आंख को हाथ नही लगाना श्रेयकर होता है.
     कुछ स्थितियों में या तो आंखों में जलन की शिकायत रहती है या फिर आंखों से पानी आता रहता है.यह समान्यतया बालों में रूसी(Dandruf´ के कारण होता है.इसमें बालों से निकलकर रुसी आंख की पलक से होती हुई आंखों में गिरती है जिसके कारण  आंखों में जलन एवं पानी आने की समस्या होती है.ऐसे में एक अच्छे एन्टी डैंड्रफ शैंपू का बराबर इस्तेमाल आपकी समस्या का निवारण कर देगा. खुछ हद तक इस तरह की समस्या विटामिन ए की कमी के कारण होती है. 

     बचपन से लेकर बडा होने तक आंखों की कई समस्याओं का सामना करना पडता है.कई ऐसे रोग होते हैं जिनका सही समय पर यदि ईलाज करवा लिया जाए तो बाद में समस्या बडा होने से रोका जा सकता है.मेरे एक मित्र हैं जिनको बचपन में स्कूल में बोर्ड पर लिखा हुआ दिखाई नहीं देता था.पास में बैठे सहपाठी की कापी से चीजें कॉपी करना पडता था.शरीर से पूर्णतया स्वस्थ बालक था अतः इस समस्या के बारे में किसी ने गम्भीरता से नहीं लिया.18 साल का होने पर जब स्थिति गंभीर होने लगी तो डॉक्टर को दिखाया गया.जांच के बाद पता लगा कि इन्हें लेजी आई(Amblyopia´ नामक रोग था.इसमें आंख के पर्दे (Retina´ का सही विकास नहीं हो पाता है.100 में से 1 बच्चे में सामान्यतया यह रोग पाया जाता है. यदि बचपन में ही इसका इलाज करवाया जाए तो रोग ठीक हो सकता है पर बढती उम्र के साथ इसका निदान असंभव सा है.एक और समस्या है जिसे भैंगापन(Squint´ कहते है.यह भी बचपन में ही दिखने लगता है.यदि समय पर इसका इलाज नहीं करवाया गया तो यह भी आगे चलकर लेजी आई में बदल सकता है.बचपन में होने वाला मोतियाबिन्द भी आगे चलकर इस समस्या का कारक हो सकता है.समय पर जांच करवाकर इन समस्याओं से निपटा जा सकता है.

     कई बार ऐसा होता है कि हमें आंखों के आगे काला सा धब्बा दिखाई देता है या फिर मक्खी उडती हुई महसूस होती है.यह लक्षण Viterous Opacity नामक बिमारी के कारण होता है.

     कभी कभी बल्ब के चारों तरफ इन्द्रधनुष स दिखाई देता है. यह अवस्था लगातार रहे तो होशियार हो जाइए.यह ग्लूकोमा का लक्षण है.इस रोग में आंखों के अम्दर का दबाव सामान्य से अधिक या कम हो जाता है.इससे धीरे धीरे आंखों की दृष्टि चली जाती है.सामान्यतया मधुमेह एवं उच्च रक्त चाप वाले रोगियों मे इस बिमारी के होने के आसार अधिक होते हैं.
     आंखों में यदि बिजली चमकने जैसा आभास हो तो हो सकता है कि यह रेटीना(आंख के पर्दे) की गंभीर बिमारी हो सकती है.जिस ब्यक्ति  को नजदीक की वस्तुएं साफ ना दिखती हों तथा उम्र बढने के साथ ही यदि ब्यक्ति को नजदीक की वस्तुएं साफ दिखाई देने लगे तथा धूप में निकलने में परेशानी हो , शाम के समय साफ साफ दिखाई देने लगे तो समझिए कि मोतियाबिन्द हो रहा है.
     नेत्र दान के बारे में तो आपने अवश्य सुना होगा.आज के समय में एक व्यक्ति के एक आंख की पुतली(Cornea´ से   छः नेत्रहीनों को दृष्टि मिल सकती है. इस अनुपाात में यदि सही ढंग से नेत्रदान किया जाए तो हमारे भारत में ही न जाने कितने नेत्रहीनों को नई रोशनी मिल सकती है.इस दिशा में एक पहल एवं एक शुरूआत की आवश्यकता है.हम और आप मृत्यु  के बाद भी किसी की आंखों से नया जीवन पा कर दुनियां को देख सकते हैं.

     है ना बडी ग़ूढ एवं रहस्यमयी ये आंखे. तभी तो इन नैनौं पे सारा जहां निसार है.इनपर लोगों ने क्या क्या लिख डाला है.बस अब जरूरत है इनका ख्याल रखना , समुचित देखभाल , कुछ सामान्य से आसन एवं योग से इन्हें और भी सुन्दर एवं  आकर्षक बनाए रखा जा सकता है.


एक दिन फुटपाथ के साथ

 रोज के तरह सुबह-सुबह टहलने निकला था | अपनी मौज में गुनगुनाता चला जा रहा था , लगा जैसे किसी ने आवाज लगाया हो | सुनने के लिए इधर-उधर देखा, कहीं कोई दिखाई नहीं दे रहा था | मन का वहम सोच कर आगे बढ़ने लगा कि फिर वही आवाज आयी | पुकारने वाले ने धीमे से कहा, ”जनाब ज़रा नीचे तो झांकिए, मैं आपका चिर परिचित  'फुटपाथ' आपको आवाज दे रहा हूँ|” अब चौंकने की बारी थी , फुटपाथ मुझसे बात करने को उद्धत | उसने आगे कहा, “आज तक आपने बहुतों के बारे में लिखा- पढ़ा- सुना  होगा | कभी मेरे बार में भी कुछ लिख दीजिये|” थोड़े देर के लिए मैं सोच में पड़ गया कि क्या लिखूं , फिर निश्चय किया कि पूरी कहानी सुन लिया जाए फिर लिखने की शुरुआत होगी | वो बताता गया , मैं लिखता गया |
      सुबह की पहली किरण आकाश से फूटकर अभी नीचे आ भी नहीं पाती कि अपनी सेहत का ख्याल रखने वाले कुछ मतवाले , कुछ भटकते लोग विभिन्न वेशभूषा में मचलते- मटकते चले आते हैं , मॉर्निंग वाक के नाम से | इनमें से कुछ तो सही रूप में  'वाक' शब्द को चरितार्थ करते हुए दीखते हैं | पिछले दिन की घटनाएं, मित्रों एवं पड़ोसियों के छिद्रान्वेषण , घर से लेकर राजनीति तक का हर हाल आपस में बयां करते हुए चल देते हैं |इनमें कुछ ऐसे उद्दमी भी होते हैं जो बिना तम्बाकू सेवन के नहीं रह सकते ,शायद अपने घर से नित्य क्रिया करने न निकलते हों लिहाजा एक कोना देख कर उत्सर्जन कर अपने आप को हल्का कर लेते हैं | मैं वेचारा क्या कर सकता हूँ , मेरी चीख भी तो उन्हें सुनायी नहीं देती है | धीरे-धीरे सेहताकांक्षी इन वीरों का काफिला चला जाता है | आकाश भी लालिमा छोड़ अब अगले रंग में ढलने लगता है | यह समय शायद दिन भर के अच्छे समयों से एक होता है , जब नगर निगम के कर्मी प्रेम से अपने अस्त्रों द्वारा सेहताकांक्षी वीरों द्वारा फैलाये हुए कचरे के साथ दिन भर के गन्दगी को साफ़ करके निकल जाते हैं | इसके साथ ही   धीरे - धीरे मजमा लगना शुरू हो जाता है | आने जाने वालों का सफर शुरू हो जाता है , इसके साथ ही उनके विभिन्न आवश्यकताओं की वास्तु बेचने वाले सौदागर विभिन्न      रूप –रंगों में सज कर आ जाते हैं और फिर मंडी सा माहौल लग जाता हैं | शुरुवात में तो सब शांत सा चलता रहता है ,पर अचानक हलचल और भगदड़ मच जाती है | पलट कर देखा तो पता लगा कि ये नगर निगम एवं पुलिस का एक संयुक्त अभियान है जो इस प्रकार के अनाधिकृत व्यापारियों के खिलाफ चलता रहता है | ऐसा रोज नहीं होता है , पर जिस दिन ऐसा होता है उस दिन बेचारे व्यापारियों की शामत आ जाती है | बेचारे करें भी तो क्या |कम आमदनी वाले ये लोग मोटा पैसा लगाकर कहीं स्थायी व्यापार तो लगा नहीं सकते , लिहाजा आज यहाँ तो कल कहीं किसी फुटपाथ पर चलता रहता है | समय का चक्र आगे बढ़ता रहता है और उसी क्रम में यह बाजार भी | शाम की शुरुवात के साथ यह बाजार सिमटने लगता है | व्यापारी अपना सब समेटकर अपने घरों को लौट जाते हैं | अब लगता है कि थोड़ा सुकून मिल जाएगा | पर ऐसा कहाँ सम्भव हो पाता है | दिन ढलने के बाद शाम के व्यापारियों की शुरूवात हो जाते है | एक निर्जन पड़ा फुटपाथ फिर से जीवंत हो उठता है | यह सिलसिला भी कुछ पलों के बाद थम जाता है | अब लगता है कि नीरवता आ गयी हो | पर नहीं असली चहल- पहल का समय तो अब आता है | शहर भर के    बेघर – बेसहारा लोग, दिन भर इधर उधर भटकने के बाद चैन की नींद लेने के लिए मेरे आगोश में आ बैठते हैं | कभी लकड़ी सुलगाकर, तो कभी बेकार पड़े प्लास्टिक और  पॉलीथीन जलाकर कच्ची पक्की रोटी बनाकर बड़े सुकून से आपस में मिल बांटकर ग्रहण करते हैं | भोजन का ऐसा अप्रतिम आनंद तो मुझे लगता है पंच-तारा होटलों के भोजन के स्वाद में नहीं होगा | रैन बसेरा तक ही यह सीमित नहीं होता है | ये शरणार्थी इसी फुटपकथ पर शादी- विवाह से लेकर हर प्रकार के रश्मों रिवाजो में बंधते  हैं | बल बच्चेदार बनते है , वृद्धावस्था में प्रवेश करते हैं और फिर दुनिया से कूच कर जाते हैं | दिन भर के बिछुड़े हुए ऐसे मिलते हैं जैसे जन्मों बाद मिल रहे हों | अब यह मिलन सदा प्रेम मिलन ही हो जरूरी नहीं | कुछ व्यसन के शौकीन शरणार्थी भी तो होते है | ऐसे लोग पास सोते हुए लोगों की परवाह न कर आपस में झगड़ा- फसाद भी कर ही डालते हैं , अब वो  चाहे अपनी घरवाली से हो या फिर अन्य लोगों से | कभी -कभी तो इन्हें शांत करने के लिए पुलिस तक को  आना पड़ जाता है | अब यदि पुलिस आयी तो बाकी बेचारों को भी बेघर होना पद जाता है | पकडे जाने के भय से सब पलायन करने लगते हैं | जबतक मौसम मेहरबान है तबतक गर्मी अथवा सर्दी हो , ये मेरा साथ नहीं छोड़ते हैं , पर जैसे ही बर्षात की शुरुआत होती है , मेरे साथ-साथ इनपे भी शामत आ जाती है | कुछ तो यूँ ही भीगते हुए बर्षात के ख़त्म होने का इंतजार करते है तो भीगने से बचने के लिए कोटरों की तलाश में भटकने लगते हैं | यह इनके लिए कठिनतम समयों से एक होता है | पर बेचारे करें भी तो क्या |यूँ ही लुढ़कते- लुढ़कते जीवन के अंतिम पड़ाव तक पहुँच ही जाते हैं | धीरे धीरे रात  गहराती है , दिन के उजाले लाने के लिए घड़ी अग्रसर होने लगती है | ये निवासी उठकर दिन भर के दिनचर्या की शुरुवात कर डालते हैं | पानी का ड्रम लेकर क्या महिला , क्या पुरुष सभी बारी - बारी से स्नान करने लगते हैं | जो निपट गया वो भोजन बनाने में लग जाता है | फटाफट भोजन बनाकर , खाकर अपना सब सामान समेत किसी पेड़ की डाली या दीवार की कोटरों में छुपाकर सब इधर उधर हो जाते हैं | लगता है जैसे यहाँ कभी कोई रहा ही ना हो | अलार्म बजना , सेहताकांक्षी वीरों का आगमन और फिर से पूरा चक्र चल पड़ता है |हमेशा सोचता रहता हूँ कि शायद आज शांत रहे माहौल , पर निरंतर सबकुछ चलता रहता है |

      इस कहानी में मैं तो जैसे खो सा गया था , तभी पीछे से श्रीमतीजी ने आवाज लगाई , “ कहाँ खो गए हो , आगे भी चलना है , चलो बढ़ो |” मुस्कुराते हुए मैंने फुटपाथ को विदा कहा और मैं भी अपनी दिनचर्या में लग गया

गली-कूचा : स्लिप डिस्क(PIVD)

गली-कूचा : स्लिप डिस्क(PIVD):          आज के समय में युवा हो या वृद्ध , अधिकांश लोगो को इस बीमारी से पीड़ित देखा जाता है | आइये जानें कि आखिर क्या है " स्लिप डिस्...

स्लिप डिस्क(PIVD)

  
      आज के समय में युवा हो या वृद्ध , अधिकांश लोगो को इस बीमारी से पीड़ित देखा जाता है | आइये जानें कि आखिर क्या है "स्लिप डिस्क"|
      हमारे शरीर के हड्डियों की श्रृंखला में रीढ़ की हड्डी एक मुख्य भूमिका निभाती है | गर्दन से लेकर पीठ के निचले हिस्से तक 31 हड्डियों की श्रृंखला है जो आपस में एक दूसरे से जुडी हुई है | इस श्रृंखला के बीच से एक खोखले पाइप नुमा छेद सा बनता है | इस छेद से होकर स्पाइनल नर्व की श्रृंखला मस्तिष्क से लेकर कमर के निचले हिस्से तक जाती है | आगे चलकर यह स्पाइनल नर्व शरीर के विभिन्न हिस्सों को कंट्रोल करती हैं | इनका मुख्य कार्य ब्रेन से भेजे जाने वाले न्यूरल सिग्नल को ब्रेन से शरीर के विभिन्न हिस्सों में ले जाना होता है | इसकी लम्बाई पुरुषों में 45 सेंटीमीटर एवं महिलाओं में 43 सेंटीमीटर है | रीढ़ के हड्डियों की सुराख के बीच में स्पाइनल नर्व होता है , स्पाइनल नर्व को घेरे हुए एक तरल पदार्थ "स्पाइनल- फ्लूड" होता है | स्पाइनल फ्लूड एवं स्पाइनल कॉर्ड (रीढ़ की हड्डी) का मुख्य प्रयोजन इन स्पाइनल नर्व को सुरक्षा प्रदान करना, शरीर के ढाँचे को मजबूती से संभाले रखना है |
      इन 31 हड्डियों की श्रृंखला में सबसे पहला सर्वाइकल है जो हमारे गर्दन के पास से होकर निकलती है | इसकी संख्या 08 है , इसके बाद नंबर आता हैं थोरेसिक का जो 12 की संख्या में है| हमारे छाती के पास के पीठ के हिस्से मे इसका स्थान होता है | इसके बाद 05 हड्डियों की श्रृंखला आती है जिसे लम्बर कहते हैं , इसकी संख्या कुल 05 है| ये हड्डियां कमर के हिस्से को सहायता करती हैं |इसके साथ ही सैक्रल की श्रृंखला में 05 हड्डियां हैं | अंतिम श्रृंखला है कोक्सिस (coccygeal) की जो एक संयुक्त हड्डी है | इन हड्डियों के बीच में हर एक के बीच एक सॉफ्ट पैड होता है |(दिए गए चित्र में हड्डियों के बीच नीले रंग के अवयव यही पैड हैं) यह पैड दो हड्डियों के बीच कुशन सा कार्य करती हैं एवं इनको आपस में घिसने से बचाती हैं| कभी कभी किसी प्रकार के आघात अथवा अन्य कारणों से हड्डियों के बीच का यह पैड अपने स्थान से आगे पीछे खिसक जाता है | इस विस्थापन के कारण हड्डियों के बीच से गुजर रही स्पाइनल नर्व पर  दबाव पड़ता है | इस दबाव के कारण दबाव के स्थान से लेकर आगे तक चुभता हुआ दर्द होने लगता है |अधिकांशतः यह समस्या या तो गर्दन की हड्डियों में (सर्विकल) अथवा कमर की हड्डियों (लम्बर अथवा सैक्रल) में देखा गया है | यदि सर्विकल में है तो गर्दन अथवा कंधे एवं बाजुओं में तकलीफ देखी जाती है | यदि कमर के हिस्से में है तो कमर अथवा पैरों में यह तकलीफ देखी जाती है |
      समस्या की पहचान होने वाले चुभन के साथ रहने वाले दर्द से हो जाती है | पुष्टि स्वरूप एक्स-रे और एम आर आई की जांच होती है | सबसे सटीक जांच  एम आर आई की होती है जिसमें हड्डी के अंतिम सतह, नर्व की स्थिति का सही आंकलन किया जा सकता है | प्रारम्भ में तो समस्या सिर्फ दर्द तक ही सीमित रहती है पर धीरे-धीरे समस्या बढ़ती जाती है और इसके दुष्प्रभाव के रूप में अन्य तकलीफें आती जाती है | इस तकलीफों में सायटिका , फुट ड्राप (इसमें पैर पर व्यक्ति का कंट्रोल लगभग ख़त्म सा हो जाता है | इसे आंशिक पक्षाघात अथवा Paralysis. भी कह सकते हैं |) , प्रभावित नर्व के कारण सुन्नपन अथवा आगे चलकर पक्षाघात का ख़तरा बढ़ जाता है |स्लिप डिस्क के कारण नर्व पर लगातार दबाव पड़ता रहता है | यदि यह दबाव अपेक्षाकृत बढ़ जाए तो नर्व के कट जाने का ख़तरा बढ़ जाता है | एक बार नर्व कट गयी तो सम्बद्ध समस्या स्थायी हो जाती है, नर्व शरीर के जिस हिस्से को कंट्रोल करती है उसमें विकार उत्पन्न हो जाता है एवं इसका इलाज लगभग असंभव है
      प्रारंभिक तकलीफ में योग, फिजियोथेरपी एवं दवा के प्रयोग से इसपर काबू किया जा सकता है परन्तु यदि तकलीफ बढ़ जाए तो डॉक्टर इसमें ऑपेरशन की ही सलाह देते हैं | ऑपेरशन के दौरान सर्जन इस खिसके हुए डिस्क को काट कर निकाल देते हैं | डिस्क के निकल जाने से नर्व पर पड़ने वाला दबाव ख़त्म हो जाता है तथा मरीज को आराम हो जाता है |
      ऑपेरशन ऐसी चीज है जिसका नाम सुनकर बड़े से बड़े हिल जाते हैं , खासकर जब कमर के ऑपेरशन की बात की जाए | है भी यह जोखिम की बात | तीन तरह की विधियां इस ऑपेरशन की प्रचलित है | पहली विधि है पारम्परिक ऑपरेशन का जिसमें सम्बद्ध स्थान कमर अथवा गर्दन के पीछे के हिस्से में चीरा लगाया जाता है एवं डिस्क को काट कर निकाला जाता है | डिस्क को काट कर निकालने की प्रक्रिया को डिसक्टोमी कही जाती है | इस प्रक्रिया में मरीज को स्पाइनल एनेस्थीसिया  दिया जाता है | यानी कि मरीज के स्पाइनल नर्व में सुन्न करने की सुई लगाई जाती है और ऑपेरशन किया जाता है | इस ऑपेरशन से एक और उन्नत ऑपेरशन की प्रक्रिया चली जिसे माइक्रो सर्जरी का नाम दिया गया | इस ऑपेरशन में भी परम्परागत ऑपेरशन जैसा ही सब कुछ होता है | इन दोनों ऑपेरशन में प्रभावित अंग के आसपास बेहोशी की दवा का असर होने के कारण किसी सूक्ष्म नर्व के प्रभावित होने का ख़तरा रहता है | तीसरे प्रकार का एक ऑपेरशन है Transforaminal Endoscopic Discectomy(Stitchless) है | इस विधि में की होल जैसे एक चीरा के द्वारा सर्जन इंडोस्कोप द्वारा सर्जन प्रभावित डिस्क अथवा उसके हिस्से को निकाल देते हैं | इस प्रक्रिया के दौरान मरीज पूर्णतया होश में रहता है तथा डॉक्टर उससे बातचीत करता रहता है | यदि ऑपेरशन के दौरान किसी सूक्ष्म नर्व में ज़रा सी भी तकलीफ हो जाती है तो मरीज को इसका एहसास हो जाता है तथा सर्जन इसका ध्यान रखता है | इस ऑपेरशन की खास बात यह रहती है कि ऑपेरशन के एक घंटे के बाद मरीज अपने घर जा सकता है | तथा यह ऑपेरशन लोकल एनेस्थेसिया देकर किया जाता है |इन तीनों ऑपेरशन का अपने अपने स्थान पर अलग अलग महत्व है|
      ऐसी ही कुछ तकलीफ मैंने देखा है जिसमें दुर्भाग्यवश मरीज को पारम्परिक ऑपेरशन एवं Transforaminal Endoscopic Discectomy(Stitchless) दोनों प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ा | स्लिप डिस्क(PIVD) के कारण पहले मरीज को फुट ड्राप हुआ | सभी न्यूरो सर्जन ने ऑपेरशन का ही सलाह दिया | अनन्तः मरीज का ऑपेरशन करवाया गया | यह ऑपेरशन पारम्परिक ऑपेरशन जैसा ही था | ऑपेरशन के बाद मरीज हफ्ता भर तो ठीक रहा पर हफ्ते के बाद उसकी तकलीफ और बढ़ गयी | अब तो उसका बैठना उठना भी मुश्किल हो गया | पता लगा कि ऑपेरशन के स्थान पर आतंरिक इन्फेक्शन(Post operative discitis) के कारण मवाद जैम गया है |जबतक यह मवाद ठीक नहीं हो जाता शारीरिक तकलीफ में किसी प्रकार के परिवर्तन की आशा नहीं की जा सकती | लगभग सात आठ माह तक तकलीफ चलती रही परन्तु सुई एवं दवा का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था |रीढ़ की हड्डी के इस भाग तक दवा का असर लगभग 0.2% ही हो पाता है क्योंकि इस स्थान पर पहुँचते पहुँचते उसका अधिकांश भाग या तो शरीर में अवशोषित हो जाती है या फिर शरीर उसे बाहर निकल देता है | एक मात्र यदि किसी प्रकार से उस स्थान पर सुई द्वार पहुँच कर दवा डाली जाए तो कुछ होने की संभावना रहती है | परन्तु उस स्थान के स्पाइनल नर्व की नाजुकता को देखते हुए कोई भी चिकित्सक ऐसी प्रक्रिया करने की सलाह नहीं देता है |कई डॉकटरों की सलाह ली गयी | सबने एक सुर में कहा कि पुनः एक बार ऑपेरशन करना होगा उसके बाद यदि मवाद (puss) रुक गयी तब तो ठीक है वरना बाद से बदतर होने की संभावना होगी | ठीक होने की संभावना का आश्वाशन किसी ने नहीं दिया | सौभाग्यवश एक सहिद्रय न्यूरो सर्जन डॉ अजय शर्मा मिले जिन्होंने एक डॉक्टर को Transforaminal Endoscopic Discectomy(Stitchless) करते हुए देखा था | उन्होंने बताया कि करने को तो मै भी ऑपेरशन करता हूँ पर इस बार भी वही पारम्परिक विधि होगी | इसमें कहा नहीं जा सकता कि इन्फेक्शन कितना जाएगा अथवा निदान कितना हो सकता है | यदि हमलोग चाहे तो इस Transforaminal Endoscopic Discectomy(Stitchless) से ऑपेरशन करवा सकते हैं | इसमें Post operative infection होने की संभावना अपेक्षाकृत नगण्य है | इसके लिए उन्होंने मुझे उस विशेषज्ञ का फोन नंबर दिया जो इस प्रकार का ऑपेरशन करते हैं |उनके सलाह पर हम इस प्रक्रिया  के लिए तैयार हो गए | लगभग दो घंटे ऑपेरशन चला | ऑपेरशन के दौरान ऑपेरशन थियेटर में लगे बड़े आकार के TV. के परदे पर रीढ़ की हड्डी के प्रभावित हिस्से में चल रही समस्त हलचल एवं प्रक्रिया को चिकित्सा दल एवं मरीज देखता रहा | इस दौरान डॉक्टर मरीज को उसके इन्फेक्शन और उसके हड्डी की दशा एवं आकार को स्क्रीन पर ही बताते रहे ऑपेरशन पूर्णतः सफल रहा | ऑपेरशन के कुछ दिन के बाद दवा एवं फिज़िओथेरपी से मरीज पूर्णतः स्वस्थ है एवं ठीक से चल फिर सकता है |
      ऑपेरशन की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें कही ना कहीं कुछ और असुविधाएं होने की संभावना रहती ही है |पर यदि कोई उपाय ना हो और ऑपेरशन करवाना ही पड़े तो मेरी सलाह है कि इस नयी प्रक्रिया के बारे में अपने डॉक्टर एवं इस प्रक्रिया के विशेषज्ञ से एक बार अवश्य राय ले लिया जाए | अनन्तः प्रकृत ने मनुष्य जीवन को सुचारु रूप से चलायमान रखने के लिए एक मूलमंत्र दिया है , वह है अपनी दिनचर्या एवं नियम का पालन करना , इससे बीमारी पास आ ही नहीं सकती है |